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लेखक-श्री धरण सिंह

एक शाम जब विश्वासनाथ आरामकुरसी में सुस्ता रहे थे, तभी पास बैठी सौदामिनी बोल उठी, ‘देखिए जी, अब मकान बन गया है. दोनों बच्चों की शादी भी हो गई है. नरेन कहता है कि वह अभी ब्याह नहीं करेगा. वह व्यापार करना चाहता है.’

‘व्यापार? माने किस चीज का व्यापार?’ विश्वास दा ने पूछा.

‘वह ड्राइविंग सीख रहा है न. उसे सैलानियों को घुमाने के लिए टूरिस्ट गाड़ी चाहिए. वह कहता है कि 5 लाख रुपए तो चाहिए ही होंगे.’

‘हूं,’ उन्होंने सिर हिलाया.

‘तो क्यों न बचे हुए रुपए हम बच्चों में बांट दें. इतने रुपयों का हम क्या करेंगे. पता नहीं, कब ऊपर से बुलावा आ जाए,’ उस ने एक लंबी सांस खींची. तभी खांसी का एक दौरा उठा जो उसे निढाल कर गया.

‘ऐसे नहीं बोलो सौदामिनी, चलो, भीतर जा कर लेट जाओ,’ विश्वास दा ने कहा. तभी बहू ने मांजी की अलमारी से ‘इन्हेलर’ मशीन ला कर दी जो सौदामिनी के शहर के एक डाक्टर ने दी थी. थोड़ी दवा लेने के बाद वह अब पलंग पर लेट गई थी.

अगले सप्ताह पत्नी के कहने पर हीरेन, नरेन के अकाउंट खुलवा कर विश्वासनाथ ने 30 लाख रुपए हर एक के खाते में डलवा दिए. दामाद को भी 30 लाख रुपए नकदी देने का फैसला किया गया.

बड़े बेटे की बहू चूंकि शहर की थी, उस ने धीरेधीरे हीरेन को शहर जाने के लिए मना लिया था. दोनों ने शहर जा कर एक नया बनाबनाया मकान ले लिया था. छोटे बेटे नरेन ने 2 टूरिस्ट गाडि़यां और्डर दे कर मंगवा ली थीं, जो देशीविदेशी टूरिस्टों को पूरे हैवलौक द्वीप में घुमाती थीं. गाडि़यों से अच्छी आय होने लगी थी. लेकिन सैलानियों को घुमातेघुमाते उस की आदतें अब कुछ बिगड़ने लगी थीं.

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