देशी घी के लड्डुओं की खुशबू घरआंगन में पसरी हुई थी. तनु एकटक लड्डुओं को देखे जा रही थी. उन्हें उठा कर बाहर फेंक देने का मन हो रहा था.

‘‘मां, लड्डू,’’ मालू, शालू दोनों बहनें मचल उठीं.

‘‘अपने घर भी जब हमारा नन्हा सा भाई आएगा तो लड्डू बंटेंगे, है न मां?’’

बच्चियां पुलक रही थीं. ‘भाई’ शब्द तनु को कहीं गहरे तक बेध गया. कमोबेश सबकुछ तो है उस के पास. छोटा सा घर, प्यार करने वाला सुदर्शन पति, सुंदरप्यारी 2 बेटियां. परंतु नहीं है तो बस एक बेटा. बेटे की चाहत तनु के दिल में गहरे पैठी हुई थी. समय के साथ उस की जड़ें गहरी और मजबूत होती जा रही थीं. काश, एक पुत्र उसे भी होता. बेटे की मां का गौरव उसे भी प्राप्त होता.

प्रत्येक दंपती को संतान की चाहत रहती है पर बेटे की चाहत कुछ ज्यादा ही होती है. तनु भी इस का अपवाद नहीं थी.

‘‘नहीं खाना लड्डू. फेंको,’’ बेटियों के हाथ से लड्डू छीनती अपने ही संकुचित विचारों के दायरे में कैद तनु जोर से चीखी.

बच्चियां सहम गईं. आंखों में आंसू आ गए. बच्चियां अपना अपराध सम झ नहीं पाईं. चुपचाप सिसकती रहीं. रो तो तनु भी रही थी. मालू, शालू तो डांट के कारण रो रही थीं. तनु के रोने का क्या कारण हो सकता है? पड़ोसिन के घर बेटे के जन्म पर ईर्ष्याजनित पीड़ा. स्वयं को पुत्र न होने का दुख और इस संबंध में कुछ कर न पाने की विवशता.

शाम को अतुल दफ्तर से आए तो अति प्रसन्न थे. उन के हाथ में मिठाई का डब्बा था.

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