मां के आंचल से हाथ पोंछने की मेरी बचपन की आदत थी. इस आदत को ले कर पिताजी हमेशा टोकते थे लेकिन ऐसा करने पर मां का चेहरा ममता से भर उठता. दिक्कत तो तब होती थी जब नौकरी के लिए परीक्षा देने के लिए बाहर जाता या कभी किसी अन्य काम से खाना खाने के बाद जब नैपकिन मिलता तो मां का पल्लू याद आ जाता. ऐसा लगता कि या तो पेट नहीं भरा या खाना ही ठीक नहीं था.?
कई दिनों के बाद जब बाहर से घर आता तो मां खाना परोसतीं और खाने के बाद नैपकिन मांगता तो मां को लगता कि उन का बेटा बदल गया है. अपनी मां से पहले जैसा प्रेम नहीं करता. मां को लगता कि मुझे बाहर की हवा लग गई है. जब मां देखतीं कि मैं ने खाना खा लिया है तो मेरे पास आ कर खड़ी हो जातीं और अपना पल्लू मेरे हाथ में थमा देतीं. मुझे अच्छा लगता. जब मैं कभीकभार भूल जाता तो मां कहतीं कि बाहर जा कर तुम्हें क्या हो जाता है. अपनी मां का पल्लू भी याद नहीं रहता. मैं तुम्हें कभी बाहर नहीं जाने दूंगी.
मां के पल्लू से मेरा विशेष लगाव, प्रेम, अपनत्व था. यह मेरी दिनचर्या का हिस्सा था. मां के न रहने पर भी मुझे खाने के बाद मां की याद आती थी. कितनी अच्छी और प्यारी थीं मेरी मां. मां ने कभी न सोचा और न ही मैं ने कि मां की साड़ी खराब होती है. यही आदत शादी के बाद भी बनी रही.