राह चलते आटो वाले ने हमें ठोंका सो ठोंका, ऊपर से कम्बख्त हमीं से तूतूमैंमैं पर भी उतारू हो गया. हम ने आव देखा न ताव और पहुंच गए थाने में रपट लिखाने. लेकिन वहां पुलिस की मेहरबानी के पीछे छिपे असली रंग की कहानी तो और भी चौंकाने वाली थी.

मैं और मेरा मित्र पवन दबे कदमों से थाने में पहुंचे. दरअसल, एक आटो वाले ने मुझे टक्कर मार कर गिरा दिया. लेकिन इत्तेफाक से मित्र और आटो वाले के बीच तूतूमैंमैं हुई. आटो वाला मित्र से खूब अकड़ा. वह अपनी गलती मानने को तैयार न था. उन दोनों की तकरार में मैं मूकदर्शक बना खड़ा रहा. आखिर मित्र ने थाने में जाने की धमकी दे कर उस के आटो का नंबर नोट कर लिया.

गुस्से में मित्र और मैं थाने आ गए. थाने के सिपाही ने, जो थानेदार से कम नहीं दिख रहा था, हम दोनों को पहले तो घूरा फिर अकड़ते हुए बोला, ‘‘कहिए.’’

‘‘रपट लिख लीजिए,’’ मित्र बोले.

‘‘किस के खिलाफ?’’ सिपाही ने वही प्रश्न किया जो हर शिकायतकर्ता के साथ करता है. दरअसल, थाने की एक अलग भाषा होती है जो युगों से चली आ रही है.

‘‘उस आटो वाले के खिलाफ, जो इन्हें गिरा कर चला गया. उस से सभ्यता से बात की तो वह बहुत अकड़ा,’’ मित्र ने मेरी तरफ इशारा करते हुए आगे कहा, ‘‘आटो वालों का गुंडाराज हो गया है. ठीक ढंग से चलाते नहीं. कहा था, अपनी गलती कबूल कर लो मगर वह उलटा हमें ही दोषी बताता रहा.’’

मित्र का धाराप्रवाह भाषण सुन सिपाही ने पहले मित्र को कुदृष्टि से देखा. फिर क्रोध से बोला, ‘‘रपट लिखाने के लिए आए हो कि भाषण सुनाने. वह आटो वाला कौन है? उस के आटो का नंबर क्या है?’’

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