हमें सड़ा हुआ मुंह ले कर आते देख राजन समझ गया कि आज तो मजनू की अच्छी मलामत हुई है. फिर वह पूछ ही बैठा, ‘‘क्यों आशिकजी, क्या बात है, थूथन फुलाए चले आ रहे हो? लगता है महबूबा ने घास नहीं डाली महबूब को.’’ ‘‘डाली थी यार, महबूबा ने घास तो डाली थी पर महबूब ने नाकमुंह सिकोड़ लिया. बस, जलभुन कर चली गई यह चैलेंज करते हुए कि कभी तुम बना कर लाओ तो पता चलेगा. अब उसे कौन समझाए कि खाना बनाना अपने बस का रोग नहीं,’’ हम ने झुंझलाते हुए बताया.

‘‘पर हुआ क्या?’’ राजन ने पूछा तो हम खिसियाते हुए बोले, ‘‘यार, रागिनी खीर बना कर लाई थी, जो हमें बिलकुल पसंद नहीं आई. हम ने कह दिया क्या बेहूदा स्वाद है. बस, इसी पर वह नाराज हो गई और बोली, ‘कभी खुद कुछ बनाया हो, ला कर खिलाया हो तो पता चले न किसी की भावनाओं का. बस, मांबहन बनाती रहें और जनाब नुक्स निकालते रहें. पुरुष सिर्फ खाना जानते हैं.’

‘‘तुम्हें क्या लगता है पुरुष कुछ बना नहीं सकते. हम बनाने लगें तो अच्छेअच्छों को मात दे दें. देखा नहीं, हर फाइव स्टार होटल से ले कर गलीनुक्कड़ के रैस्टोरैंट, ढाबे तक में पुरुष ही तो पकाते हैं और महिलाएं चटखारे ले कर खाती हैं, हम ने कहा.

‘‘तिस पर वह भड़की और बोली, ‘हां, बड़े शैफ समझते हो खुद को, कभी कुछ बना कर लाओ तो जानें. अगली बार तभी मिलने आना जब कुछ अपने हाथों से बना कर लाना,’ कहते हुए उस ने अपना बैग उठाया और चली गई.‘‘

‘‘इस में कौन सी बड़ी बात है यार. खरीद लेना किसी अच्छी सी दुकान से उस का मनपसंद खाना और खिला देना. तेरी कायल हो जाएगी,’’ राजन ने कुटिल हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘अरे, नहीं भाई, खुद बना कर खिलाएंगे अपने हाथों से अपनी महबूबा को इतने भी बेगैरत नहीं हम.’’

‘‘बस, तो फिर लगे रहना किचन में और जलाते रहना बरतन. न डिश बनेगी न महबूबा मानेगी.’’

रागिनी से हमारी मुलाकात पिछले साल हुई. मैट्रो से विश्वविद्यालय जाते और आते अकसर नजरें चार होतीं. इसी तरह मिलते हुए रागिनी कब दिल में उतर गई पता ही न चला. वह अंगरेजी औनर्स कर रही थी और हम इतिहास औनर्स.

हम हर हफ्ते एक बार मिलते और लंच साथ करते. रागिनी हर हफ्ते कुछ न कुछ नया बना कर लाती. कभी चाइनीज चाट, कभी मंचूरियन, कभी परांठे तो कभी सैंडविच आदि और हम बड़े स्वाद से उंगलियां चाटचाट, चटखारे लेले खा जाते. बस, आज ही हमारी मति मारी गई थी जो अंगारा हाथ में उठा लिया.

‘‘अब भुगतो,’’ राजन ने कहा और हिदायत दे दी, ‘‘ले लो कुछ व्यंजन बनाने के नुसखों वाली किताबें और चाटो उन को. कुछ बना पाए तो ठीक वरना…’’

हम ने भी ठान लिया था कि नर हैं, मन को निराश तो करेंगे नहीं, बस, इसी धुन में छांट लीं लाइबे्ररी से कुछ अलगअलग व्यंजन बनाने की विधि बताती किताबें और लगे पार्क में बैठ उन्हें चाटने. देखने वाले पढ़ाकू समझते और सचाई जानने वाले फुद्दू. कई दोस्तों ने तो यहां तक कह दिया कि वाबरची बनने का इरादा है क्या? अब उन्हें कौन समझाए कि हम तो महबूबा की खातिर ये पापड़ बेल रहे हैं.

तरहतरह के व्यंजन बनाने के बारे में अब हम इतना पढ़ चुके थे कि पूरा ग्रंथ लिख दें. दोस्तों से चर्चा भी हम रैसिपी पर ही करते तो उन्हें लगता जैसे महबूबा को मनाने नहीं मास्टरशैफ में भाग लेने जा रहे हैं.

ऐसे में उस दिन क्लासरूम में बैठे हम लौकी के कोफ्ते बनाने की विधि पढ़ रहे थे कि कब प्रोफैसर रूम में आ गए और पढ़ाना शुरू कर दिया, हमें पता ही न चला. हमारी तंद्रा तब भंग हुई जब पास बैठे राहुल ने झिंझोड़ा, ‘‘सर कुछ पूछ रहे हैं.’’

‘‘बताओ, अंगरेज भारत से क्याक्या ले गए थे?’’ सर ने पूछा तो हम आननफानन में खड़े हुए और बताने लगे, ‘‘एक पाव लौकी, बेसन, तलने के लिए तेल, नमक मिर्च…’’ हम बोले जा रहे थे और सब हंसे जा रहे थे.

जब हमें भान हुआ कि हम क्या कह गए हैं और यह भी कि एक सुंदर महबूबा की खातिर क्याक्या करना और सहना पड़ता है. खैर, योजना को परवान चढ़ाने का वक्त आ गया था. कल हम ने रागिनी से मिलना था और सोच लिया था कि मम्मी सुबह उठ कर किचन में लगें उस से पहले ही फारिग हो जाएंगे. सो हम रात को 3 बजे ही उठ गए और लगे बेसन घोलने लौकी घिसने.

किचन में बरतनों की खटरपटर से मम्मी जागीं तो हम ने ‘म्याऊं…’ की आवाज निकाल दी. वे भी बिल्ली समझ करवट बदल सो गईं. अब हमें काम करते हुए समझ आ रहा था कि हम तो मीनमेख निकालते रहते हैं और बनाने वाले को कैसे खटना पड़ता है.

कच्चेपक्के से कोफ्ते तले, टमाटर काट कर ग्रेवी बनाई और फटाफट मिक्स कर एक तरफ रखा. हमें फ्रिज में रात का बचा गुंधा आटा मिल गया सो रोटियां बनाने की भी सोची. 4 रोटियों में एक भी गोल न बनी पता नहीं किसकिस देश का नक्शा बना. तिस पर सड़ गईं सो अलग.

इधर हमें मम्मी के जागने का डर भी सता रहा था. सब फटाफट पैक किया और बरतन धोए, ताकि हमारी करतूत हम तक ही रहे.

फोन कर रागिनी को बता दिया, ‘‘तुम्हारी मनपसंद डिश बना कर ला रहे हैं. उंगलियां चाटती रह जाओगी.’’

यह सुन कर रागिनी भी फूली न समाई और प्रफुल्लित हो नियत समय पर पहुंच गई. फिर कुटिल हंसी हंसती हुई बोली, ‘‘लाओ, देखें क्या बनाया है जनाब ने.’’

डब्बा खोलते ही हमारी हंसी काफूर हो गई और चेहरा पीला पड़ गया, हम ने इतनी मेहनत से जो कोफ्ते बनाए थे, कतराकतरा हो तैर रहे थे, तिस पर चखते ही रागिनी ने नाकभौं सिकोड़ीं. हम समझ गए कि बात बनी नहीं.

‘‘चख कर देखा था कोफ्तों को कैसे बने हैं,’’ रागिनी ने पूछा तो हम ने चखा और अपनी मूर्खता पर माथा पीट कर रह गए.

‘‘नमक की जगह सोडा डाल दिया था क्या,’’ रागिनी ने कहा तो हमें अपनी गलती का भान हुआ लेकिन तब तक रागिनी जा चुकी थी.

हम अपना सा मुंह लिए लौट आए. राजन फिर हंसा और बोला, ‘‘छोड़ो बनाने का चक्कर. इस चक्कर में तुम बनते जा रहे हो. ले लो कहीं से मनपसंद डिश और खिलाओ उसे.’’ पर हम ने तो जैसे प्रण कर लिया था कि खिलाएंगे तो अपने हाथ का बना भले ही कितना भी वक्त लगे रूठी महबूबा को मनाने में. यही सोचते हुए जाते हम एक नुक्कड़ पर रुके. काठीरोल बन रहे थे. सोचा ‘2 पैक करवा लेते हैं, घर जा कर खाएंगे,’

काठीरोल बनते देख हमारे मन में कीड़ा कुलबुलाया, ‘क्यों न अगले हफ्ते काठीरोल ही बना कर ले जाएं. कितना आसान है. परांठा तो थोड़ाबहुत बनाना आता ही है हमें बस, रोल कर के बीच में आलू की सब्जी ही तो भरनी है.’

हमें लगा हमारे हाथ महबूब की खातिदारी का जादुई चिराग लग गया है. फिर कुछ सोच हम ने फिर से व्यंजन पुस्तिकाएं खंगाली, मोबाइल पर नैट में सर्च किया ताकि कोई कमी न रहे. आलू की सूखी जीरे वाली सब्जी बनाने की पूरी विधि पढ़ हम ने ठान लिया कि इस बार मम्मीपापा के औफिस जाने के बाद बनाएंगे. अगले हफ्ते मिलने की बेला आने वाली थी और हमारी परीक्षा की. मम्मीपापा के चले जाने के बाद आलू निकाले, छीले और हो गए शुरू. थोड़ा तेल डाल, आलू छोंक, नमक, मिर्च, हलदी, मसाला सब डाल दिया. सब्जी ढक कर आंच कम की और गूंधा आटा ले लगे परांठे बेलने. 2 परांठे बनाने में ही हमारी हालत पतली हो गई. पसीना पोंछ हम ने सब्जी उतारी और परांठों में भर दी साथ में लच्छेदार प्याज काट कर ऊपर रखी और रोल कर के फौयल में पैक कर दिए.

आज हम खुद पर इतरा रहे थे. साथ में चटनी की जगह सौस के पाउच पैक किए और पहुंच गए मैट्रो स्टेशन. वही मैट्रो की सीढि़यां और वही आशिकमहबूबा. हम ने रागिनी के हाथ में थमा दिया डब्बा और लगे भूखी निगाहों से उसे निहारने. डब्बा खोलते ही उस की बांछें खिल गईं. सौस का पाउच खोला, ढक्कन पर डाला और एक रोल उठा कर मुंह में डालते ही उबकाई लेती हुई बोली, ‘‘क्या बनाया है यह,’’ फिर रोल खोल कर देखती हुई बोली, ‘‘तुम ने इस में जीरे वाले आलू डाले हैं न. झल्लू, जीरे की जगह सौंफ डाल दी है तुम ने. लो, अब खाओ तुम ही.’’

हम ने तो सोचा था अपने हाथों से बने रोल से महबूबा का दिल जीत लेंगे, लेकिन पासा उलटा पड़ गया. हमें खुद पर भी ताज्जुब हुआ कि हम जीरे और सौंफ में फर्क न कर पाए. करते भी कैसे दोनों एक से ही तो दिखते हैं. महबूबा के  मानने की उम्मीद पर पानी फिर गया था. रागिनी पैर पटकती लौट गई थी और हम मुंह लटकाए हाथ में सौंफ वाली सब्जी के रोल थामे अपनी हार का मातम मनाते वापस आ गए.

घर बैठे हमारे जेहन में रागिनी के जलेकटे राग घूम रहे थे. ‘कुछ नहीं बना सकते तुम. कहते हैं हर जगह मर्द ही तो खाना बनाते हैं. घर में उन से एक भाजी भी न बनती होगी.’ तभी राजन ने तंद्रा भंग की, ‘‘भई, ऐसे मजनू भी न बनो कि लैला की उंगलियों पर नाचो. ‘‘बरखुरदार, कभीकभी सीधी उंगली से घी नहीं निकलता तो उंगली टेढ़ी भी करनी पड़ती है, पर तुम मानो तब न. बात समझ आए तो चलो, मेरे साथ मूलचंद नुक्कड़ पर एक अंडे के परांठे वाला बैठता है, खिला कर लाता हूं, पसंद आएं तो ले जाना अगली बार पैक करवा कर अपनी महबूबा की खातिर वरना…’’

परांठे बनते देख मन किया कि सीख लें. रागिनी भी तो कई बार कई चीजें बना कर लाती है अपने हाथों से, पर हिम्मत न हुई, पिछली कोशिशों के बाद हम हिम्मत हार चुके थे, सो हम ने निर्णय किया कि अगली बार परांठे ही पैक करवा कर ले जाएंगे.

अब हम ने रागिनी को फोन किया तो उस ने साफ मना कर दिया, ‘‘अपनी बावरचीगीरी अपने पास ही रखो, मैं नहीं आने वाली,’’ पर हम भी कहां मानने वाले थे. लाख नानुकर के बावजूद हम ने उसे मना लिया.

इस बार हम दहीचटनी के साथ अंडे के मशहूर परांठे पैक करवा पहुंच गए मिलन की जगह. हम इंतजार कर रहे थे. रागिनी अभी पहुंची नहीं थी. हमारा दिल बैठा जा रहा था. तभी फोन घनघना उठा. स्क्रीन कर रागिनी लिखा देख हम समझ गए कि उल्लू बनाएगी और बोल देगी कि मैं नहीं आ सकती. हम ने हैलो कहा तो उधर से आवाज आई, ‘‘साहब, हम ‘चंदू चाइनीज चाट’ से बोल रहे हैं. दरअसल, मैडम आज चाइनीज चाट लेने आई थीं तो अपना मोबाइल यहीं भूल गईं. काफी इंतजार के बाद देखा तो सब से आखिरी कौल में आप से ही बात हुई थी सो आप को बता रहे हैं. जब मैडम आएं, कहिए फोन हम से ले लें.’’

‘अच्छा तो यह बात है. यहां भी महबूबा द्वारा महबूब की खातिर उंगली टेढ़ी की जा रही है. अब समझ आया कैसे अच्छीअच्छी डिशेज बना कर लाती थी, बल्कि चंदू चाट से लाती थी और हमें उल्लू बनाती थी, तिस पर हमें झोंक दिया चूल्हेचौके में,’ हम सोच ही रहे थे कि रागिनी आ गई. हम ने फोन वाली बात छिपा परांठे परोस दिए. सूंघते ही खाने को दौड़ी. स्वाद चखते ही वाह…वाह…करने लगी. करती भी क्यों न बड़ी मशहूर दुकान के जो थे.

‘‘हूं अब आया है स्वाद तुम्हारे हाथों में. मैं बेकार ही चाइनीज चाट बना कर लाई.’’

‘‘चाइनीज चाट?’’ हम ने कहा तो बोली, ‘‘हां, मैं ने सोचा तुम तो बेकार ही बना कर लाते हो भूखे रहने से अच्छा है कुछ खाने को हो. लो खाओ,’’ कहते हुए उस ने अपना टिफिन खोल कर रख दिया. दरअसल, वह चाइनीज चाट इसलिए अपने डब्बे में पैक करवा कर लाई थी ताकि पता न चले कि खरीदी है बल्कि कह सके कि मैं ने महबूब की खातिर बनाई है.

हम ने खाते ही कह दिया, ‘‘यह स्वाद तो जानापहचाना लगता है. अरे हां, यह तो चंदू चाइनीज चाट की चाट है न…’’

हमारी बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि वह बोली, ‘‘हां, तुम्हें तो लगेगा ही. मरखप कर चूल्हे में हाथ जलाओ, इतने प्यार से महबूब की खातिर बना कर लाओ और दूसरा उस की वैल्यू ही न समझे. खुद से तो कुछ बना नहीं और मेरी तारीफ भी न कर पाए,’’ इतना कह कर वह सुबकने लगी.

‘‘अच्छा, सच बताओ, यह चाट तुम चंदू चाइनीज चाट से लाई हो कि नहीं,’’ हम ने पूछा तो वह साफ मुकर गई.

‘‘तो ठीक है लाओ, अपना फोन दो, हम चंदू से ही पूछते हैं,’’ हम ने कहा तो उस का ध्यान अपने फोन पर गया फिर जेब में, पर्स में हर जगह देखखोज लिया. पर फोन न मिलना था न मिला. वह हक्कीबक्की रह गई. उसे याद आ गया था पर फिर भी झूठ बोली, ‘‘शायद घर रह गया है.’’

‘‘नहीं जानू, तुम्हारा फोन घर नहीं बल्कि चंदू चाइनीज चाट पर रह गया है. उन्होेंने अभी मुझे फोन कर बताया है,’’ हम ने पत्ते खोले तो वह शरमा गई.

अपनी पोल खुलती देख उस का चेहरा फक्क रह गया था. हम ने भी चुटकी ली, ‘‘जनाब, महबूब की खातिर क्याक्या करना पड़ता है हम बखूबी जानते हैं, तुम खुद तो पकापकाया  ला कर महबूब की खातिरदारी करती रही और हमें झोंक दिया चूल्हे में. लेकिन महबूबाजी हम भी उंगली टेढ़ी करना जानते हैं. अगली बार मिलना तो कुछ अच्छा सा अपने हाथों से बना कर लाना, चंदूवंदू से नहीं,’’ इस बार उलटे हम ने शर्त थोपी.

‘‘चलो, अब चलें ‘चंदू चाइनीज चाट’ पर तुम्हारा मोबाइल लेने,’’ हम ने कहा तो इस संकल्प के साथ कि अगली बार महबूब की खातिर सच में कुछ ऐसा बना कर लाएगी कि हम उंगलियां चाटते रह जाएं, हमारी बगल में हाथ डाल चल दी हमारे साथ.

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