चाहे इंसान हो, शहर हो, सड़क हो, या फिर कोई स्थान हो, नाम बदलने का फैशन चल पड़ा है. भई, नाम बदलने वालों को लगता है कि वहां की या उस की तस्वीर या फिर दशा बदल जाएगी. पर ऐसा होता है क्या?
आखिर और क्या तरीका हो सकता था इन के जीवन को आसान बनाने का. यदि इन के लिए सार्वजनिक स्थानों, कार्यालयों आदि मैं रैंप बनवाया जाए, व्हीलचेयर की व्यवस्था की जाए, चलिष्णु सीढि़यां लगाई जाएं, बैटरीचालित गाड़ी का प्रबंध किया जाए, तो उस में कितना खर्च होगा. कितना परिश्रम लगेगा.
यदि अंगदान को प्रोत्साहन कर उन्हें वांछित अंग उपलब्ध करवाया जाए या फिर शोध व अनुसंधान के जरिए उन के लिए आवश्यक यंत्र बना कर या विकास कर उपलब्ध करवाया जाए तो यह काफी कष्टकर व खर्चीला होगा. फिर उन्हें वह संतुष्टि नहीं मिलेगी जो दिव्यांग जैसे दिव्य नाम प्राप्त होने से मिली. सो, और कुछ करने की अपेक्षा प्यारा सा, न्यारा सा नाम दे देना ही उचित होगा.
तो कुछ और करने से बेहतर है कि इस तरह के वंचित लोगों को खूबसूरत सा प्रभावी नाम दे दें. और हम ऐसा करते भी आए हैं. विकलांगों को पहले डिफरैंटली एबल्ड या स्पैशली एबल्ड का नाम दिया गया और अब दिव्यांग. हो सकता है आगे चल कर इस से भी तड़कभड़क वाला, इस से भी गरिमामय कोईर् नाम दे दिया जाए.
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किसानों को अन्नदाता का नाम और दर्जा दिया जाता रहा है. भले ही वे खुद अन्न के लिए तरसते रहें. भले ही वे अपने ही उपजाए अन्न को फलों को, सब्जियों को कौडि़यों के दाम बेच कर उसे पाने के लिए, खाने के लिए तरसें. अन्नदाता नाम का ही प्रभाव है कि हमारे अधिकांश किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं. और यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. हो सकता है आने वाले दिनों में यह समाचार छपा करे कि आज इतने किसानों ने आत्महत्या नहीं की.