दुनिया वालों को पापपुण्य, आत्मा, मुक्ति और मोहममता से दूर कर प्रसाद बांटते गुरुदेव की महिमा अपरंपार है. पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तर्ज पर किस्तों में दक्षिणा लेते, कामुकता से लैस और धर्म के पक्के धंधेबाज गुरुदेव की शरण में जो भी आया, धन्य हो कर या कहें लुट कर ही लौटा. आप भी सुनिए जरा गुरुकंटालजी के प्रवचन.
वे जनता को देख कर मंदमंद मुसकराए और बोले, ‘‘तुम देह नहीं हो.’’ फिर अपनी देह की खुजली मिटाने के लिए खुजलाने लगे. फिर धर्मप्रिय जनता को संबोधित करते हुए बोले, ‘‘तुम शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो. आत्मा की अमरता को पहचानो. शरीर झूठ है.’’
एक भक्त ने पूछा, ‘‘शरीर असत्य है तो फिर असत्य और झूठे शरीर को भूख क्यों लगती है? क्या हमारी भूख भी झूठी है?’’
‘‘भूख इसलिए लगती है क्योंकि तुम शरीर में जीते हो. स्वयं को शरीर मानते हो. आत्मा को पहचानो. आत्मा को न भूख लगती है न प्यास.’’
भक्त बड़े भोले होते हैं, धर्मभीरु होते हैं. लेकिन जिज्ञासा है जो उन्हें गुरु के पास लाती है. भक्त ने पूछा, ‘‘महाराजजी, शरीर तो साक्षात है. दिख रहा है. शरीर की जरूरतें भी हैं, जिन की पूर्ति करनी जरूरी है. रोटी, कपड़ा और मकान तो चाहिए ही.’’
महाराजजी बोले, ‘‘ठीक है, रोटी, कपड़ा, मकान की जरूरत होती है लेकिन शरीर होने तक. जिस दिन आत्मा को पा लोगे उस दिन किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ेगी.
‘‘महाराजजी, आत्मा को कैसे पाएं? कहां है आत्मा?’’ भक्त ने पूछा.
महाराजजी मन ही मन बुदबुदाए, ‘इस का तो मुझे भी पता नहीं.’ बोले, ‘‘शरीर के अंदर एक दिव्य प्रकाश है, वही आत्मा है. उस को जाननेपहचानने का अभ्यास करो.’’
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