थकीहारी चारु के चेहरे पर उस ने कभी भी तनाव की सुर्खी नहीं देखी थी, हमेशा मधुर मुसकान और निस्सीम पुलक के भाव ही देखे थे. उसे लगता, मां के उपदेशों से आहत हो कर चारु कभी भी मां का विरोध क्यों नहीं करती? विरोध न करे, प्रतिकार तो करे. एक दिन चारु को विश्वास में ले कर उस ने पूछा तो चारु के नेत्र सजल हो उठे थे. भर्राए स्वर में बोली थी, ‘हमेशा से मां ऐसी नहीं थीं, मधुकर. इस घर में रह कर मां ने जितना दुलार मुझे दिया है, शायद ही किसी दूसरे को मिला होगा. उन के ऋण से मैं कभी भी मुक्त नहीं हो सकूंगी. ‘कुछ दिनों पहले एक कार दुर्घटना में उन की दोनों टांगें जाती रहीं. उन के शरीर का निचला भाग चेतनाशून्य हो कर रह गया. हंसतीखेलती, चुस्तदुरुस्त गृहिणी का जीवन बिस्तर और डाक्टरों की दवाओं तक आ कर सिमट जाए तो उस की मनोदशा क्या होगी?
‘2 दिनों की बीमारी इंसान को परेशान कर देती है. मां जानती हैं कि यह बीमारी उन्हें आजन्म बरदाश्त करनी है. हीनभावना से ग्रस्त मां का मनोबल तो बढ़ा ही सकती हूं, अगर और कुछ नहीं कर सकती तो ...’ वितृष्णा के स्थान पर बेटी की संवेदना को देख कर चकित हो उठा था मधुकर. सहानुभूति का दरिया उमड़ पड़ा था उस के मन में चारु के प्रति. इस सहानुभूति ने कब दोनों के मन में प्रणय का स्थान ले लिया, यह तब जान पाए जब दोनों एकदूसरे के सान्निध्य के लिए तरसते थे. पूरे दिन की शिथिलता एकदूसरे के साहचर्य में पलभर में विलुप्त हो जाती थी. इन मधुर क्षणों को कंजूस के धन की भांति दोनों प्रेमी सहेज कर रखते थे. एक दिन मधुकर ने जब चारु के मातापिता के सामने ब्याह का प्रस्ताव रखा तो इनकार नहीं किया उन्होंने. वे तो स्वयं उस नारकीय वातावरण से अपनी बेटी को निकालना चाह रहे थे. लेकिन चारु परेशान हो उठी. नन्हे भाई और पिता का खयाल उस की खुशियों को तिरोहित कर गया. लेकिन पिता बेटी की खुशियों की चिता पर बेटे का जीवन नहीं संवारना चाहते थे.