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पार्टी के शोरगुल और लोगों की भीड़भाड़ में चारु खुद को बेहद अकेला महसूस कर रही थी. खिलाखिला सा वातावरण भी मन की बोझिल परतों को राहत नहीं दे पा रहा था. बचपन से ही अंतर्मुखी रही है वह. न कभी किसी को आमंत्रण देती और न ही कभी स्वीकार करती थी. आज भी अणिमा की बात तो टाल ही गई पर आलोक की जिद को टाल नहीं पाई थी. तभी तो उस के कहने पर चली आई थी. भीड़ से दूर छिटक कर बाहर छोटी सी बगिया में आ गई थी. बेला और गुलाब के चटकीले रंगों और महकती सुरभि के बीच छोटीछोटी रंगीन कुरसियां पड़ी थीं, फुहारों से पानी झर रहा था. बीच में छोटा सा जलाशय था.

काफी देर तक जल की लहरों को गिनती रही थी. अचानक आलोक की आवाज ने उसे चौंका दिया था, ‘‘दीदी, देखो तो कौन आया है.’’ ‘‘मधुकर?’’ शब्द गले में ही घुट कर रह गए. नितांत अजनबी जगह में किसी आत्मीय जन का होना मरुस्थल में झील के समान ही लगा था उसे. मंद हास्य से युक्त उस प्रभावशाली व्यक्तित्व को काफी देर तक निहारती रही थी. तभी तो नमस्कार के बदले नमस्कार कहना भी भूल गई थी. देख रही थी, कुछ तो नहीं बदला इस अंतराल में. वही गौर वर्ण, उन्नत नासिका और घुंघराले बाल. हां, कहींकहीं बालों में छिटकी सफेदी उम्र का एहसास अवश्य करा दे रही थी. ‘‘कैसी हो, चारु?’’ वही पुराना संबोधन कैसा अपना सा लगा था उसे. ‘‘अच्छी ही हूं. आप कैसे हैं?’’ इतने बरसों बाद मात्र औपचारिक से प्रश्नोत्तर ही रह गए थे अब दोनों के बीच. ‘‘क्या कर रहे हैं आजकल?’’ ‘‘अपना नर्सिंगहोम है. सुबह से शाम तक मरीजों से घिरा रहता हूं. यों समझ लो दिन कट जाता है.’’ मधुकर के चेहरे पर घिर आई मधुर मुसकान में चारु ने कुछ ढूंढ़ने का प्रयत्न किया. मन में बहुत कुछ उमड़नेघुमड़ने लगा था, ‘मरीजों के अतिरिक्त समय बिताने के लिए आप के पास सुंदर पत्नी होगी, भरापूरा परिवार होगा.’ ‘‘चलो, अंदर चलें. बाहर ठंड है,’’ अपना हाथ उन्होंने चारु के कंधे पर टिका दिया. मनचाहे व्यक्ति का स्पर्श कितना हृदयस्पर्शी, सुखदायी है.

कनखियों से निहारा था उस ने मधुकर को. मधुकर के प्रश्न से एक बार फिर चौंकी थी, ‘‘आलोक की पत्नी कैसी है? खूब सेवा करती होगी तुम्हारी?’’ वह प्रश्न कम था, उस पर किया गया कटाक्ष अधिक, यह अच्छी तरह समझ रही थी चारु. आलोक के ब्याह से पूर्व जब मधुकर ने उसे ब्याह के बंधन में बांधना चाहा था और उस का नकारात्मक उत्तर सुन कर समझाया भी था, ‘वे सब अपनेअपने जीवन में व्यस्त हो जाएंगे, सिर्फ तुम ही अकेली रह जाओगी, चारु.’ सच ही कहा था मधुकर ने. अगर उस का प्रस्ताव तब ठुकराया न होता तो इस घुटनभरी जिंदगी से मुक्ति तो मिल गई होती. तब परिपक्व और व्यावहारिक बुद्धि वाली चारु को लगा था कि मधुकर स्वप्नजीवी है. मगर आज महसूस कर रही थी कि मधुकर तो ठोस धरातल पर ही खड़ा था.

उसी ने अपने चारों ओर कर्तव्यनिष्ठा की ऐसी सीमारेखा बांध ली थी जिसे तोड़ना तो दूर, लांघना भी नामुमकिन था. डर रही थी कुछ दिन पहले जो फफोला अंतर में फूटा था, कहीं अपने अंतरंग साथी को देख कर उस का मवाद न रिस जाए. अंदर कमरे में बैठ कर मधुकर की उपस्थिति में वह सहज नहीं हो पा रही थी. अनचाहे ही वह पूछ बैठी, ‘‘आप कहां रह रहे हैं?’’ ‘‘यहीं, होटल हिलटौप में.’’ मधुकर सोच रहा था, ‘हमेशा की तरह होटल में रहने के लिए टोकेगी.’ पर ऐसा कुछ नहीं हुआ तो खुद ही पूछ लिया उस ने, ‘‘घर आने के लिए नहीं कहोगी, चारु?’’ ‘‘घर? किस का घर? मेरा कोई घर नहीं है,’’ आह भरी थी चारु ने. ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो?’’ ‘‘सच कह रही हूं. जिस घर को सजायासंवारा, अपने स्नेह से सींचा, अब वहां मुझे अपनी स्थिति अनावश्यक और निरर्थक लगती है. विश्वास न हो तो खुद आ कर देखो, कैसे बेगानों की तरह रह रही हूं. ऐसे, जैसे कोई किराए के मकान में रहता है.’’ इतने दिनों का संयम खुद टूटने लगा था.

इस से ज्यादा न मधुकर ने कुछ पूछा न ही चारु ने कुछ कहा. लोगों की भीड़ में चारु आलोक को ढूंढ़ने लगी थी. घर लौटना चाह रही थी अब. तभी उसे आलोक और अणिमा आते हुए दिखे. बंगले से बाहर निकल कर आलोेक ने मधुकर को निमंत्रण दिया था लेकिन चारु फिर भी चुप रही थी. आखिर दूसरे दिन आने का वादा कर के मधुकर होटल लौट आया. बिस्तर पर लेटेलेटे मधुकर बाहर फैले अंधकार को ताकता रहा था. जितनी बार आंखें बंद करने का प्रयास करता, चारु का उदास चेहरा और बोझिल पलकें उस के सामने आ जातीं. वह सोचने लगा, इतनी उदास तो वह तब भी नहीं दिखती थी जब टूटतेबिखरते घर को संवारने में संघर्षरत रही थी. बरसों पुराना विगत धुलपुंछ कर उस के सामने आ गया था. अतीत के गर्भ में बसी उन भूलीबिसरी यादों को भुला पाना इतना सहज नहीं था. फिर उन रिश्तों को कैसे भुलाया या झुठलाया जाए जो उस के जीवन से गहरे जुडे़ थे. अपने त्याग और खुशियों की आधारशिला पर तो चारु ने आलोक के भविष्य का निर्माण किया था. आज वही आलोक उस के साथ दुर्व्यवहार करता होगा? विश्वास नहीं हुआ था उसे.

उस ने भी तो आलोक को बचपन से देखापरखा है, फिर मनमुटाव की यह स्थिति क्यों उपजी? यादों के साए और भी गहराने लगे थे. उन दिनों वह उस शहर में नयानया आया था. चारु और उस के परिवार से उस का परिचय तब हुआ था जब वह उस की बीमार, अपाहिज मां का इलाज करने अकसर उस के घर जाया करता था. 4 लोगों का परिवार था उस का. पिता डा. भारती, उन की अपाहिज पत्नी, भाई आलोक और स्वयं चारु. बिस्तर पर लेटी चारु की मां शांत, निश्चेष्ट सी पड़ी छत को टुकुरटुकुर निहारती रहतीं. जब कभी पीड़ा सघन हो जाती तो वे जोरजोर से चीत्कार कर उठतीं. मां की सेवाशुश्रूषा में डूबी चारु कभी पिता का संबल बनती, कभी मां का मनोबल बढ़ाती तो कभी स्नेह का लेप लगा कर नन्हे भाई को ममता का कवच पहनाती. वैसे तो पत्नी की सेवा के लिए डा. भारती ने कई बार नर्स नियुक्त की थी, लेकिन सड़न से भरे हुए उस कमरे में रोगिणी की शंकित और कातर निगाहों का सामना करने का साहस किसी भी परिचारिका में नहीं था. तब कालेज की पढ़ाई के साथसाथ मां की देखरेख भी चारु की दिनचर्या का अंग बन गई थी.

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