लेखक-हेमंत कुमार
मालती और उस का परिवार संजय कालोनी की एक 8×8 फुट की झुग्गी में जबरदस्ती रहा करते थे. मालती से बड़ी और 2 बहनें थीं, जिन की शादी पिछले 2 सालों में हो चुकी थीं. अब उस पैर पसारने भर की झुग्गी में 3 लोग रह रहे थे, मालती और उस के मातापिता. मालती के पिता का भेलपुरी का ठेला था, जिस के सहारे उन की गुजरबसर हो जाती थी. कालोनी की हर औरत चार पैसे फालतू कमाने के लिए झुग्गियों से निकल कर बाहर पौश इलाकों में अमीर लोगों के घरों में झाड़ूपोंछे का काम कर लिया करती थीं,
पर मालती की मां ने पिछले कुछ सालों से बाहर काम पर जाना छोड़ दिया था. 17 साल की मालती के अंदर भी अब जवानी के रंगरूप दिखाई देने लगे थे. उस के शरीर की बनावट में भी काफी फर्क आने लगा था. मालती नगरनिगम के एक सरकारी स्कूल के पढ़ती थी, जो उस की झुग्गी से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर था. उस की कालोनी की बाकी लड़कियां भी उसी स्कूल में जाती थीं. मालती और उस की सहेलियां स्कूल से घर आते समय रास्ते में खूब मस्ती किया करतीं. कभी किसी राह चलते लड़के को छेड़ दिया या किसी इमली वाले से उधार में इमली ले कर खा ली. एक दिन स्कूल के बाहर जब मालती ने अपने ही पड़ोस की झुग्गी में नए रहने आए रघु को देखा, तो वह चौंक गई.
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रघु अभी कुछ दिन पहले ही मालती के सामने वाली झुग्गी पर अपने मामा चरण दास के यहां आया था. उस का मामा भाड़े का टैंपो चलाता था और रघु के पास उस का अपना ईरिकशा था. रघु जवान था. 22 साल का रहा होगा. कंधे चौड़े, सीना बाहर, रंग साफ, लंबाई भी कुछ साढ़े 5 फुट, पर अनपढ़. सयानी मालती हमेशा रघु से बात करने के मौके तलाशती, पर मां के रहते ऐसा करना मुश्किल था. पर आज मालती अपनी सारी सहेलियों के साथ उस के ईरिकशा को आगे से घेर कर खड़ी हो गई, मानो उस रघु का अब सबकुछ छिनने वाला हो. पर उन लोगों ने तो सिर्फ मुफ्त में सवारी करने के लिए रघु के ईरिकशा को रोका था. मालती ने फटाफट सब को पीछे वाली सीट पर बैठा दिया. जो कोई बचा, उसे एकदूसरे की गोद में और खुद सारी सीटें भर जाने के बहाने से रघु के साथ वाली सीट पर जा बैठी.