पीयूष बेहद खुश था और हो भी क्यों न, उस की सगाई शिल्पी के साथ जो हो रही थी. शिल्पी जो कुदरत की शिल्पकला का अद्भुत नमूना थी. सुंदरता के साथसाथ उस का व्यवहार और आत्मविश्वास भी पीयूष को आकर्षित करता था. इसीलिए उस की निगाहें भीड़ में इधरउधर घूम कर शिल्पी के चेहरे पर जा कर टिक जाती थीं.
दोनों के प्रेम को जमाने की नजर इसलिए भी नहीं लग सकी क्योंकि दोनों सजातीय होने के साथसाथ हर तरह से साधन संपन्न थे. पीयूष आकर्षक व्यक्तित्व वाला तो था ही साथ ही कंप्यूटर इंजीनियर भी था.
सगाई के मौके पर दोनों तरफ से ढेर सारे मेहमान जमा थे. पीयूष के मातापिता की खुशी की कोई सीमा न थी. सगाई की रस्म पूरी हो जाने के बाद पार्टी अपने उफान पर थी कि शिल्पी के मामामामी ने घर में प्रवेश किया और देर से आने की वजह बताते हुए शिल्पी के पिता से माफी मांगी.
शिल्पी के पिता ने अपने साले को ले जा कर पीयूष के घर वालों से परिचित कराया. पीयूष के पिता पर शिल्पी के मामा की नजर गई तो वह अचानक ही गंभीर हो गए और थोड़ा रुक कर बोले.
‘‘लगता है मैं ने आप को अपने ही महल्ले में देखा है. आप वही हैं न जो मिसेज श्रद्धा के घर अकसर आते रहते हैं.’’
पीयूष के पापा यानी संजीव थोड़ा सकपका गए, फिर संभल कर बोले, ‘‘जी...जी हां. मैं कभीकभी उधर जाता हूं.’’
‘‘कभीकभी नहीं संजीव साहब, आप अकसर ही जाते रहते हैं,’’ शिल्पी के मामा अपनी बातों पर जोर डाल कर बोले, ‘‘क्या यह सच नहीं है कि उन की बेटी की शादी की सारी जिम्मेदारी आप ने ही निभाई थी? आज के जमाने में कौन करता है किसी गैर के लिए?’’
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