आने वाला कल हमें हजार बार रुला सकता है, सैकड़ों बार शरम से झुका सकता है और न जाने कितनी बार यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि कल हम ने जो फैसला लिया था वह वह नहीं होना चाहिए था जो हुआ था.
‘‘आप क्या सोचने लगे, डाक्टर सुधाकर. भीतर चलिए न, चाय का समय समाप्त हो गया.’’
मैं सेमिनार में भाग लेने मुंबई आया हूं. आया तो था अपना कल, अपना आज संवारने, अपने पेशे में सुधार करने, कुछ समझने, कुछ जानने लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि जिसे पहले नहीं जानता था और शायद भविष्य में भी न जान पाऊं… उस में जाननेसमझने के लिए बहुत कुछ है.
अपने ही समाज में जड़ पकड़े कुछ विकृतियां क्यों पनप कर विशालकाय समस्या बन गईं और क्यों हम उन्हें काट कर फेंक नहीं पाते? क्यों हम में इतनी सी हिम्मत नहीं है कि सही कदम उठा सकें? कुछ अनुचित जो हमारी जीवन गति में रुकावट डालता है. उसे हम क्यों अपने जीवन से निकाल नहीं पाते? मेरा आज क्या हो सकता था उस का अंदाजा आज हो रहा है मुझे. मैं ने क्या खो दिया उस का पता आज चला मुझे जब उसे देखा.
‘‘आप की आंखें बहुत सुंदर हैं और बहुत साफ भी.’’
‘‘मैं चश्मा लगाती हूं पर आज लैंस लगाए हैं,’’ एक पल को चौंका था मैं.
‘‘आप के पापा से मेरे पापा ने बात की थी कि मैं चश्मा लगाती हूं, आप को पता है न.’’
‘‘हां, पापा ने बताया था.’’
याद आया था मुझे. मुसकरा दी थी वह. मानो चैन की सांस आई हो उसे. अच्छी लगी थी वह मुझे. महीने भर हमारी सगाई की बात चली थी. तसवीरों का आदानप्रदान हो चुका था जिस कारण वह अपनीअपनी सी भी लगने लगी थी.
‘‘डाक्टरी के पेशे में एक चीज बहुत जरूरी है और वह है हमारी अपनी अंतरात्मा के प्रति जवाबदेही…’’
ऐसी ही तो मानसिकता पसंद थी मुझे. सोच रहा था कि जीवनसाथी के रूप में मेरे ही पेशे की कोई मेधावी डाक्टर साथ हो तो मैं जीवन में तरक्की कर सकता हूं.
एक दिन मेरे पिताजी ने अखबार में शादी का विज्ञापन देखा तो झट से फोन कर दिया था. दूरी बहुत थी हमारे और उस के शहर में. हम कानपुर के थे और वह जम्मू की.
पिताजी ने फोन करने के बाद मुझे बताया था कि उन्होंने अपना फोन नंबर दे दिया है. शाम को लड़की के पापा आएंगे तो अपना पता देंगे ऐसा उत्तर उस की मां ने दिया था.
बात चल पड़ी थी. बस, आड़े थी तो जाति की सभ्यता और दहेज को ले कर हमारी खुल्लमखुल्ला बातें. महीने भर में हमारे बीच कई बार विचारों का आदानप्रदान हुआ था.
मेरे पिता ने पूरा आश्वासन दिया था कि दहेज की बात न होगी और उस के बाद ही वे हमारे शहर आने को मान गए थे. बहुत अच्छा लगा था हमें उस का परिवार. उन को देखते ही लगा था मुझे कि बस, ऐसा ही परिवार चाहिए था.
बड़े ही सौम्य सभ्य इनसान. हम से कहीं ज्यादा अच्छा जीवनस्तर होगा उन का, यह उन्हें देखते ही हम समझ गए थे आज 7 साल बाद वही सेमिनार में वही लड़की भाषण दे रही थी :
‘‘एक अच्छा होम्योपैथ सब से पहले एक अच्छा इनसान हो यह उस की सफलता के लिए बहुत जरूरी है. जो इनसान अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं है वह अपने पेशे की उस ऊंचाई को कभी नहीं छू सकता जिस ऊंचाई को डाक्टर क्रिश्चियन फिड्रिक सैम्युल हैनेमन ने छुआ था. एक सफल डाक्टर को उस के बैंक बैलेंस से कभी नहीं नापा जाना चाहिए क्योंकि डाक्टरी का पेशा किसी बनिए का पेशा कभी नहीं हो सकता.’’
ऐसा लगा, उस ने मुझे ही लक्ष्य किया हो. आज सुबह से परेशान हूं मैं. तब से जब से उसे देखा है.
नजर उठा कर मैं सामने नहीं देख पा रहा हूं क्योंकि बारबार ऐसा लग रहा है कि उस की नजर मुझ पर ही टिकी है.
मैं अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं रह पाया और न ही अपनी अंतरात्मा के प्रति. मैं एक अच्छा इनसान नहीं बन पाया. क्या सोचा था क्या बन गया हूं. 7-8 साल पहले मन में कैसी लगन थी. सोचा था एक सफल होम्योपैथ बन पाऊंगा.
उस के शब्द बारबार कानों में बज रहे हैं. क्या करूं मैं? इनसान को जीवन में बारबार ऐसा मौका नहीं मिलता कि वह अपनी भूल का सुधार कर पाए.
मेरी जेब में पड़ा मोबाइल बज उठा. मैं बाहर चला आया. मेरी पत्नी का फोन है. पूछ रही है जो सामान उस ने मंगाया था मैं ने उसे खरीद लिया कि नहीं. एक ऐसी औरत मेरे गले में बंध चुकी है जिसे मैं ने कभी पसंद नहीं किया और जिसे मेरा पेशा कभी समझ में नहीं आया. वास्तव में आज मैं केवल बनिया हूं, एक डाक्टर नहीं.
‘कैसे डाक्टर हो तुम? डाक्टरों की बीवियां तो सोनेचांदी के गहनों से लदी रहती हैं. मेरे पिता ने 10 लाख इसलिए नहीं खर्च किए थे कि जराजरा सी चीज के लिए भी तरसती रहूं.’ कभीकभार वह प्यार भरी झिड़की दे कर कहती.
सच है यह, उस के पिता ने 10 लाख रुपए मेरे पिता की हथेली पर रख कर एक तरह से मुझे खरीद लिया था. यह भी सच है कि मैं ने भी नानुकुर नहीं की थी, क्योंकि हमारी बिरादरी का यह चलन ही है जिसे पढ़ालिखा या अनपढ़ हर युवक जानेअनजाने कब स्वीकार कर लेता है पता नहीं चलता.
हमारे घरों की लड़कियां बचपन से लेनदेन की यह भाषा सुनती, बोलती जवान होती हैं जिस वजह से उन के संस्कार वैसे ही ढल जाते हैं. हमारी बिरादरी में भावनाएं और दिल नहीं मिलाए जाते, जेब और औकात मिलाई जाती है.
जेब और औकात मिलातेमिलाते कब हम अपनी राह से हट कर किसी की भावनाओं को कुचल गए थे हमें पता ही नहीं चला था.
ये भी पढ़ें- अब आओ न मीता
मुझे याद है, जब उस के मातापिता 7 साल पहले उसे साथ ले कर आए थे.
मेरे पिता ने पूछा था, ‘आप शादी में कितना खर्च करना चाहते हैं. यह हमारा आखिरी सवाल है, आप बताइए ताकि हम आप को बताएं कि 5 लाख रुपए कहांकहां और कैसेकैसे खर्च करने हैं.’
सबकुछ तय हो गया था पर पिताजी द्वारा पूछे गए इस अंतिम प्रश्न ने उस रिश्ते को ही अंतिम रूप दे दिया जो अभी नयानया अंकुरित हो रहा था.
‘आप ने अपनी बेटी को क्याक्या देने के बारे में सोच रखा है?’
मेरी मौसी ने भी हाथ नचा कर पूछा था. भौचक रह गए थे उस के मातापिता. एक कड़वी सी हंसी चली आई थी उन के होंठों पर. कुछ देर हमारे चेहरों को देखते रहे थे वे दोनों. हैरान थे शायद कि मेरे पिता अपने कहे शब्दों पर टिके नहीं रह पाए थे. सब्र का बांध मेरे पिता टूट जाने से रोक नहीं पाए थे’, ‘आखिर बेटी पैदा होती है तो मांबाप सोचना शुरू करते हैं. आप ने क्या सोचा है?’ पुन: पूछा था मेरी मौसी ने.
‘हम अपने लड़कों का सौदा नहीं करते और न यह बता सकते हैं कि बेटी को क्याक्या देंगे. यह तो हमारा प्यार है जिसे हम सारी उम्र बेटी पर लुटाएंगे. अपने प्यार का खुलासा हम आप के सामने कैसे करें?’
‘बहुएं भी तब आप के घरों में ही जला कर मारी जाती हैं. न आप लोग खुल कर मांगते हैं न ही आप के मन की मंशा सामने आती है. हमारी बिरादरी में तो सब बातें पहले ही खोल ली जाती हैं. बेटी के बाप की हिम्मत होगी तो माथा जोड़े नहीं तो रास्ता नापे.’ मौसी ने फिर अपना अक्खड़पन दर्शाया था.
अवाक् रह गए थे उस के मातापिता. मेरे पिता कोशिश कर रहे थे सब संभालने की. किसी तरह खिसिया कर बोले थे, ‘बहनजी ने फोन पर बताया था न… 5 लाख तक आप खर्च…’
‘अपनी इच्छा से हम 50 लाख भी खर्च कर सकते हैं. माफ कीजिएगा, आप की मांग पर एक पैसा भी नहीं.’
शीशे सा टूट गया था वह रिश्ता जिस के पूरा होने पर मैं क्याक्या करूंगा, सब सोच रखा था. मेरे क्लीनिक में उस की कुरसी कहां होगी और मेरी कहां. कुछ नहीं कर पाया था मैं. पिता के आगे जबान खोल ही न पाया था.
शायद यह हमारी कल्पना से भी परे था कि वह लोग इतनी लंबीचौड़ी प्रक्रिया के बाद इनकार भी कर सकते हैं. हमारा व्यवहार इतना अशोभनीय था कि कम से कम उस का क्षोभ मुझे सदा रहा. अपनी मुंहफट मौसी का व्यवहार भी सालता रहता है मुझे. क्या जरूरत थी उन्हें ऐसा बोलने की.
उस के पिता कुछ देर चुप रहे. फिर बोले थे, ‘आप का एक ही बेटा है. अच्छा होगा आप अपनी बिरादरी में ही कहीं कोई योग्य रिश्ता देखें. मुझे नहीं लगता हमारी बच्ची आप के साथ निभा पाएगी. देखिए साहब, हम तो शुरू से ही आप से कह रहे थे कि आप के और हमारे रिवाजों में जमीनआसमान का अंतर है तब आप ने कहा था, आप को डाक्टर बहू चाहिए. और अब हम देख रहे हैं कि आप की नजर हमारी बेटी पर कम हमारी जेब पर ज्यादा है.
‘हमारी बिरादरी में लड़के वाला मुंह फाड़ कर मांगता नहीं है, लड़की वाला अपनी यथाशक्ति सदा ज्यादा ही करने का प्रयास करता है क्योंकि अपनी बच्ची के लिए कोई कमी नहीं करता. शरम का एक परदा हमेशा लड़के वाले और लड़की वालों में रहता है. यह भी सच है, बहुएं जल कर मर जाती हैं. उन में भी दहेज के मसले इतने ज्यादा नहीं होते जितने दिखाने का आजकल फैशन हो गया है.’
मुझे आज भी अपनी मां का चेहरा याद है जो इस तरह मना करने पर उतर गया था. हालात इतनी सीधीसादी चाल चल रहे थे कि अचानक पलट जाने की किसी को आशंका न थी.
‘मुझे कोई मजबूरी तो है नहीं जो अपनी बच्ची इतनी दूर ब्याह कर सदा के लिए सूली पर चढ़ जाऊं. अच्छे लोगों की तलाश में हम इतनी दूर आए थे, वह भी बारबार आप लोगों के बुलाने पर वरना ऐसा भी नहीं है कि हमारी अपनी बिरादरी में लड़के नहीं हैं. क्षमा कीजिएगा हमें.’
लाख हाथपैर जोड़े थे तब मेरे पिता ने. कितना आश्वासन दिया था कि हम कभी दहेज के बारे में बात नहीं करेंगे लेकिन बात निकल गई थी हाथ से.
आज मैं जब सेमिनार में चला आया हूं तो कुछ सीखा कब? पूरा समय अपना ही कल और आज बांचता रहा हूं. 3 दिन में न जाने कितनी बार मेरा उस से आमनासामना हुआ लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हुई उस से बात करने की.
तीसरा दिन आखिरी दिन था. उस ने मुझे फोन किया. कहा, समय हो तो साथ बैठ कर एक प्याला चाय पी लें.
उस के सामने बैठा तो ऐसा लगा जैसे 7-8 साल पीछे लौट गया हूं जब पहली बार मिलने पर अपने पेशे के बारे में क्याक्या बातें की थीं हम ने.
ये भी पढ़ें- दीक्षा
‘‘कैसे हैं आप, डाक्टर सुधाकर?’’
आत्मविश्वास उस का आज भी वैसा ही है जिस से मैं प्रभावित हुए बिना रह न पाया था.
‘‘आप मुझ से बात करना चाहते हैं न?’’
उस के इस प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. मुझे तो याद नहीं मैं ने कोई एक भी प्रयास ऐसा किया था. कर ही नहीं पाया था न.
‘‘एक अच्छा डाक्टर वह होता है जो सामने वाले के हावभाव देख कर ही उस की दवा क्या होगी, उस का पता लगा ले. नजर भी तेज होनी चाहिए.’’
चुप रहा मैं. क्या पूछता.
‘‘आप बिना वजह अपनेआप को कुसूरवार क्यों मान रहे हैं, डाक्टर सुधाकर?’’ उस ने कहा, ‘‘नियम यह है कि बिना जरूरत इनसान को दवा न दी जाए. एक स्वस्थ प्राणी अगर दवा खा लेगा तो उसी दवा का मरीज हो जाएगा.’’
मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. चश्मे से पार उस की आंखों में आज भी वही पारदर्शिता है.
‘‘पुरानी बातें भूल जाइए, हम अच्छे दोस्त बन कर बात कर सकते हैं. मैं जानती हूं कि आप एक बेहद अच्छे इनसान हैं. क्या सोच रहे हैं आप? प्रैक्टिस कैसी है आप की? आप की पत्नी भी…’’
‘‘कुछ भी…कुछ भी अच्छा नहीं है मेरा,’’ बड़ी हिम्मत की मैं ने इतनी सी बात स्वीकार करने में. इस के बाद जो झिझक खुली तो शुरू से अंत तक सब कह सुनाया उसे.
‘‘मैं हर पल घुटता रहता हूं. ऐसा लगता है चारों तरफ बस, अंधेरा ही है.’’
‘‘आप की प्रकृति ही ऐसी है. आप जिस इनसान की ओर से सब से ज्यादा लापरवाह हैं वह आप खुद हैं. आप अपने परिवार को दुखी नहीं कर सकते, सब को सम्मान देना चाहते हैं लेकिन अपने आप को सम्मान नहीं देते.
‘‘8 साल पहले भी आप के जूते जगहजगह से उधड़े थे और आज भी. अपने कपड़ों का खयाल आप को तब भी नहीं था और आज भी नहीं है. क्या आप केवल पैसे कमाने की मशीन भर हैं? पहले मांबाप के लिए एक हुंडी और अब परिवार के लिए? क्या आप के लिए कोई नहीं सोचता, अपनी इच्छा का सम्मान कीजिए, डाक्टर सुधाकर. दबी इच्छाएं ही आप का दम हर पल घुटाती रहती हैं.
‘‘इतने साल पहले आप पिता या मौसी के सामने सही निर्णय न कर पाए, उस का भी यही अर्थ निकलता है कि आप के जीवन में आप से ज्यादा दखल आप के रिश्तेदारों का है. आप अपने लिए जी नहीं पाते इसीलिए घुटते हैं. अपने घर वालों को अपने मूल्य का एहसास कराएं. यह एक शाश्वत सत्य है कि बिना रोए मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती.’’
मुझ में काटो तो खून नहीं. क्या सचमुच मेरे जूते फटे हैं? क्या 8 साल पहले जब हम मिले थे तब भी मेरा व्यक्तित्व साफसुथरा नहीं था?
‘‘आप के अंदर एक अच्छा इनसान तब भी था और आज भी है. जो नहीं हो पाया उसे ले कर आप दुखी मत रहिए. भविष्य में क्या सुधार हो सकता है इस पर विचार कीजिए. पत्नी ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है तो अब आप क्या कर सकते हैं. उसी में सुख खोजने का प्रयास कीजिए. दोनों बेटों को अच्छा इनसान बनाइए.’’
‘‘उन में भी मां के ही संस्कार हैं.’’
‘‘कोशिश तो कीजिए, आप एक अच्छे डाक्टर हैं, मर्ज का इलाज तो अंतिम सांस तक करना चाहिए न.’’
‘‘मर्ज वहां नहीं, मर्ज कहीं और है. मर्ज हमारे रिवाजों में है, बिरादरी में है.’’
‘‘मैं ने कहा न कि जो नहीं हो पाया उस का अफसोस मत कीजिए. वह सब दोबारा न हो इस के लिए अपने बच्चों से शुरुआत कीजिए जिस की कोशिश आप के पिता चाह कर भी न कर पाए थे.’’
‘‘आप को मेरे पिता भी याद हैं?’’ हैरान रह गया मैं. मुझे याद है मेरे पिता ने तो इन से बात भी कोई ज्यादा नहीं की थी.
‘‘हां, मेरी याददाश्त काफी अच्छी है. वह बेचारे भी अंत तक डाक्टर बहू की चाह और बिरादरी को जवाबदेही कैसे देंगे, इन्हीं दो पाटों में पिसते नजर आ रहे थे. ऐसा नहीं होता तो वह मेरे पापा से क्षमा नहीं मांगते. वह भी बिरादरी की जंजीरों को तोड़ नहीं पाए थे.’’
‘‘आप सब समझ गई थीं तो अपने पिता को मनाया क्यों नहीं था.’’
हंस पड़ी थी वह. उस के सफेद मोतियों से दांत चमक उठे थे.
‘‘जो इनसान अपने अधिकार की रक्षा आज तक नहीं कर पाया वह मेरे मानसम्मान का क्या मान रख पाता? शक हो गया था मुझे. आप मेरे लिए योग्य वर नहीं थे.
‘‘रुपयापैसा आज भी मेरे लिए इतना महत्त्व नहीं रखता. मैं भी आप के योग्य नहीं थी. अलगअलग शैलियों के लोग एकसाथ खुश नहीं न रह सकते थे. भावनाओं को महत्त्व देने वालों का बैंक बैलेंस इतना नहीं होता जितना शायद आप को अच्छा लगता. बेमेल नाता निभ न पाता. बस, इसीलिए…’’
8 साल पहले का वह सारा प्रकरण किसी कथा की तरह मेरे सामने था.
‘‘संजोग में शायद ऐसा ही था. मैं ने कहा न, आप दोषी तब भी नहीं थे और आज भी नहीं हैं. बस, जरा सा अपना खयाल रखिए, अपने मन की कीजिए. सब अच्छा हो जाएगा.’’
डा. विजयकर के सेमिनार में मैं कितने प्रश्न ले कर आया था, कितने ही मरीजों के बारे में पूछना चाहता था लेकिन क्या पता था कि सब से बड़ा बीमार तो मैं खुद हूं जो कभी अपने अधिकार, अपनी इच्छा का सम्मान नहीं कर पाया…तभी मौसी की आवाज काट देता, पिता की इच्छा को नकार देता तो बनती बात कभी बिगड़ती नहीं. आज अनपढ़ अक्खड़ पत्नी के साथ निभानी न पड़ती.
पता नहीं कब वह उठ कर चली गई. सहसा होश आया कि मैं ने उस के बारे में कुछ पूछा ही नहीं. कैसा परिवार है उस का? उस के पति कैसे हैं? पर गले का मंगलसूत्र, कीमती घड़ी और कानों में दमकते हीरे उसे मुझ से इक्कीस ही दर्शाते हैं. आत्मविश्वास और दमकती सूरत बताती है कि वह बहुत सुखी है, बहुत खुश है. एक अच्छे इनसान की खोज में वह अपने मातापिता के साथ इतनी दूर आई थी न, मैं ही पत्थर निकला तो वह भी क्या करती.
कितना सब हाथ से निकल गया न. उठ पड़ा मैं. मन भारी भी था और हलका भी. भारी यह सोच कर कि मैं ने क्या खो दिया और हलका यह सोच कर कि अभी भी पूरा जीवन सामने पड़ा है. अपने बेटों का जीवन संवार कर शायद अपनी पीड़ा का निदान कर पाऊं.