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बस साहब, अब हमें और क्या चाहिए था. मिजाज गद्गद हो गया. अपने पड़ोसी के विनाश के सामने तो मेरे लिए इस से बड़ा सुख कुछ न था. मैं ने जोश में आ कर वकील साहब को 5 हजार रुपए नजर किए और खुशीखुशी घर आ गया. हमारा सारा गम जाता रहा. दूसरे दिन केस ‘मूव’ हो गया.

तारीख पड़ी, हम हाजिर हुए. वकील साहब ने अपने चैंबर में बुलाया. इतने प्रेम से पेश आए कि मन खुश हो गया. आज भी सभ्यता और शिष्टाचार जिंदा है. उन्होंने सूचित किया, ‘‘थोड़ी देर में आप के केस का नंबर आ जाएगा. बहस करनी पड़ेगी, आप फीस जमा कर दीजिए.’’

हमारी घिग्घी बंध गई.

‘‘जी, अभी उसी दिन तो आप को 5 हजार रुपए दिए थे. आप...’’

‘‘कमाल करते हैं आप, वे पैसे तो हम ने केस तैयार करने के लिए लिए थे. केस को तैयार करना पड़ता है. पढ़ना पड़ता है. रातरात भर जागना पड़ता है. अभी केस पर बहस होनी है.’’

हम क्या कर सकते थे. 3 हजार रुपए जमा किए, मानो पुरखों का पिंडदान किया हो. बहस की पूरी तैयारी हो गई थी. सब लोग कोर्ट नंबर 3 में पहुंचे. जज साहब नहीं आए थे. इंतजार होने लगा. थोड़ी देर में घोषणा हुई, ‘जज साहब आज नहीं आएंगे. उन्हें नजला हो गया है. आज छुट्टी पर हैं.’ हम ने वकील साहब की ओर देखा. वकील साहब दूसरी ओर देख रहे थे. बाहर आने पर उन्होंने सूचित किया, ‘‘अगले महीने की 10 तारीख को आइए.’’

उस के बाद चले गए. हम ठगे से वहीं खड़े रहे. हमारे 3 हजार रुपए का बलिदान हो गया, हासिल कुछ नहीं हुआ. मन मार कर वापस आ गए. जितने लोगों से बात होती, सब यही कहते कि मामले को रफादफा करा लो, वरना ये वकील तुम्हें अगले जन्मों तक लड़ाएंगे. हम ने फिर भी अपने मन को कड़ा किया. अब जब मैदान-ए-जंग में आ ही गए हैं तो पीठ नहीं दिखाएंगे, चाहे जो हो जाए. कुछ पैसे जाते हैं तो जाएं. पड़ोसी के सामने झुकें, हरगिज नहीं. जो होगा देखा जाएगा. अगले माह की 10 तारीख को तो आना ही था, आ गई. हम कोर्ट में पहुंचे. तलवार साहब बिलकुल मुस्तैद खड़े थे. उन्होंने सूचित किया, ‘‘आप के केस की पूरी तैयारी कर ली है. इस बार जज साहब भी रहेंगे, पता कर लिया है. बस, एक बहस काफी है. आप के भाईसाहब तो बाहर आ ही जाएंगे. उस के बाद आप के पड़ोसी को भी देखेंगे. आप फीस जमा कर दीजिए. मुंशीजी से मिल लीजिए.’’

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