घरेलू झगड़ा कचहरी तक पहुंचा तो मास्टरजी भी तमाम जमापूंजी ले कर चल दिए मुकदमेबाजी करने ‘काले कोट’ वालों की दुनिया में. लेकिन मास्टरजी को कहां पता था कि यहां तो बिल्लियों की लड़ाई में बंदरों की मौज मनती है. फिलहाल, मास्टरजी की मनोदशा यह है कि चार जूते मार लो लेकिन कम्बख्त कचहरी से बचा लो.
अनेक धर्मों की तरह पड़ोसी का भी अपना एक धर्म है. जागरूक पड़ोसी वे कहलाते हैं जो न तो खुद चैन से रहते हैं न पड़ोसी को चैन से रहने देते हैं. संयोग से हमारे पड़ोसी में ये सारे गुण इफरात से मौजूद हैं. हमारी नजर में वे आदर्श पड़ोसी हैं, उन की नजर में हम.
एक बार जमीनजायदाद को ले कर हम दोनों के बीच लाठियां तन गईं. हम दूसरों की लात सह सकते हैं लेकिन पड़ोसी की बात नहीं. हमारे भाईसाहब बचपन से ही अच्छे निशानेबाज रहे हैं, सो उन्होंने एकदो लाठियां जड़ दीं. मामला थाने में गया. थानेदार साहब ने गीता पढ़ी थी. उन को पता था कि जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, आगे और भी अच्छा होगा. उन्होंने हमें बुला कर समझाया, ‘‘देखिए मास्टर साहब, आप भले आदमी हैं, इसलिए कह रहा हूं कि मामले को रफादफा कर लीजिए. कोर्टकचहरी का चक्कर बहुत खराब होता है. आप अपने भाईसाहब को कहीं भी छिपाएंगे, पुलिस खोज ही लेगी. आप तो जानते ही हैं कि कानून के हाथ कितने लंबे होते हैं,’’ उन्होंने हाथ को फैला कर दिखाया. हमें यकीन हो गया कि कानून के हाथ दारोगाजी के हाथ की तरह ही लंबे होते होंगे. हम ने अपनी मजबूरी और ईमानदारी एकसाथ दिखाने की कोशिश की.
‘‘सर, जिस दिन मारपीट हुई उस दिन हमारे भाईसाहब घर पर नहीं थे. उन का कोई हाथ नहीं है.’’
‘‘देखिए साहब, यह बात तो हम अच्छी तरह जानते हैं कि उन का हाथ नहीं है मगर नाम दर्ज है. इसलिए गिरफ्तार करना ही पड़ेगा. जब हम गिरफ्तार करेंगे तो जेल भी भेजना पड़ेगा. जेल की बात तो आप जानते ही हैं. एक बार गए तो चोरउचक्कों की सोहबत. गीता में कहा गया है कि कायर मत बन अर्जुन. जो देना है लेदे कर मामला निबटा लेने में ही भलाई है, बाकी आप की मरजी.’’
शांतिवार्त्ताएं होने लगीं. मोलतोल होने लगे लेकिन मामला सुलझा नहीं. दारोगाजी के पास गीता का ज्ञान था. हर काम को प्रकृति की इच्छा मानते थे. कर्तव्य कर रहे थे लेकिन फल की इच्छा नहीं रखते थे. उन का फल हमारे बूते से बाहर था.
आखिरकार हमारे भाईसाहब जेल की शोभा बढ़ाने के लिए प्रस्थान कर गए. अब शुरू हुआ नाटक का दूसरा भाग. ‘जेल से बेल’ शीर्षक से.
मेरे एक मित्र थे, बी के तलवार. वकालत उन का पेशा था. पार्टटाइम कवि भी थे. कविता से पब्लिक में घुसने का मौका मिल जाता था. वे अपने को प्रगतिशील भी मानते थे. मानते ही नहीं थे बल्कि समाज सुधार के दावे भी करते थे. हम से जब भी मिलते, इतना जरूर कहते कि मास्टर ही सच्चे समाजसुधारक होते हैं. आप को नमन करने का मन करता है. हम ने सोचा, इतना प्रगतिशील कवि है तो वकील भी उतना ‘डाकू’ नहीं होगा.
एक दिन सुबहसुबह हम उन के आवास पर जा पहुंचे. उन्होंने बड़ा भव्य स्वागत किया. बातों से इतनी आवभगत की कि मन खुश हो गया. अंत में हम ने काम की बात की. उन्होंने सपाट लहजे में कहा, ‘‘कचहरी आ जाइएगा. एफआईआर की नकल निकालनी होगी. उस का अध्ययन करने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. मेरा चैंबर पता है न आप को. जिला जज के सामने वाले हौल में.’’
हम ने फीस के बारे में पूछना मुनासिब नहीं समझा. अपने मित्र हैं, जो लेंगे देखा जाएगा.
हम कचहरी में पहुंचे. चारों ओर काले कोट वालों का साम्राज्य, या तो फटेपुराने कपड़ों में मुवक्किल या वरदी में पुलिस वाले. कारें, साइकिलें, मोटर वाली भी और बिना मोटर वाली भी.
नाना प्रकार के वाहन और नाना प्रकार के लोग. हम ने भी अभिमन्यु वाली वीरता से भीड़ को चीरना शुरू किया और पूछतेपाछते जा पहुंचे तलवार साहब के टेबल तक. अपने जूनियरों से घिरे वे भगवान विष्णु की तरह मुसकरा रहे थे. हमें देख कर एकदम से ठहाके लगा कर हंसे, बोले, ‘‘ऐसी जगह है मास्टर साहब कि यहां राजा और रंक, शरीफ और बदमाश, अनपढ़ और पढ़ेलिखे सब आते हैं. यह मंदिर है न्याय का. आप को भी न्याय मिलेगा. बस, जरा प्रसाद चढ़ाना पड़ता है.’’
फिर ठहाका. हम ने भी मुसकराने की कोशिश की. असफल रहे. पहली बार कचहरी में जाने का मौका मिला था. हम अपने को नर्वस महसूस कर रहे थे. यह भी डर था कि कोई जानपहचान का आदमी देख न ले. उन्होंने हमारी अवस्था का अंदाजा लगाया और अपने एक जूनियर से बोले, ‘‘देखो, ये हमारे मित्र हैं. इन का केस नंबर ले लो और जा कर केस की नकल ले आओ. ये कहीं नहीं जाएंगे, बुद्धिजीवी आदमी हैं. तुम जाओ. सिंहजी, आप इस को 500 रुपए दे दीजिए. यहां तो चारों ओर लूट मची हुई है. कहांकहां से रक्षा होगी.’’
हम ने भी साथ में चलने की इल्तिजा की और साथ हो लिए. रिकौर्ड रूम का किरानी, जो शायद पिछले कुंभ के समय आखिरी बार मुसकराया था, बहुत व्यस्त था. सरकार को गालियां दिए जा रहा था जिस की वजह से एक दिन का चैन भी नसीब नहीं होता. जूनियर महोदय की कृपा से थोड़ा मुसकराया लेकिन जल्दी ही गंभीर हो कर बोला, ‘‘शाम के 4 बजे आइए.’’
शाम के 4 बजे का अर्थ हमारा नादान हृदय समझ नहीं सका. हम कचहरी के अहाते में ही आहत से घूमघूम कर समय काटने लगे. जल्दी ही हमारी समझ में आने लगा कि 4 किस समय बजते हैं. समय काटना इतना आसान काम नहीं है. यह भी एक कला है जो दूसरी कलाओं की तरह सब को नहीं आती. दुनिया के सारे निठल्लों को नमस्कार कर के हम ने भालू का नाच देखने का मन बनाया.
मदारी की कला देख कर हमें तसल्ली हुई कि देश से अभी हाथ की सफाई खत्म नहीं हुई है. मदारी जब भालू को ले कर चला गया तो हम उदास मन से सड़क के किनारे बिक रहे चाइनीज सामानों की ओर मुखातिब हुए.
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