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जापानी टौर्च, चीनी खिलौने, नाना प्रकार की घडि़यां, कैमरे और न जाने क्याक्या, कानून की नाक के ऐन नीचे पूरे ठाट से बिक रहे थे. पुलिस प्रशासन के प्रति हमारी श्रद्धा उमड़ी. ‘ऐसे कोउ उदार जग माहीं’? पुलिस यदि इन गरीबों को पकड़ ले तो बेचारे क्या करेंगे? इन की रोजीरोटी का कितना खयाल रखती है, बदले में ये लोग भी तो रखते हैं. परस्पर प्यार और भाईचारा ही तो हमारे देश की पहचान है.

सामान देखते हुए हम भीड़ में जा निकले. गवाहों की खरीदफरोख्त चल रही थी. गवाह 3 हजार रुपए मांग रहा था. खूनी की हैसियत वाला आदमी उसे 1 हजार रुपए देने के लिए तैयार था. ‘इंसानियत’, ‘सामाजिकता’, ‘ईमान’, ‘धर्म’ जैसे शब्दों का प्रयोग दोनों ओर के लोग कर रहे थे. हमारे रुकने का एक कारण यह भी था. पुलिस के लोग भी थे. दोनों पक्ष के लोग खूब मुसकरा रहे थे. बड़ा ही सौहार्दपूर्ण वातावरण था. मामला जब 1500 में निबट गया तो हम वहां से खिसक लिए.

आगे पेशेवर जमानतदारों का बाजार था. 3 लोग मजे से प्रैक्टिस पर थे. 5 हजार की जमानत के 500, 10 हजार की जमानत के 1 हजार. हमारा मन श्रद्धा से झुक गया. मान लो किसी का जानने वाला इस शहर में नहीं हो तो वह गवाह और जमानतदार कहां से लाएगा? अब कम से कम इस बात की गारंटी तो है कि रुपए हों तो किसी चीज की कमी नहीं है. ‘सकल पदारथ है जग माहीं…’ तुलसी बाबा को प्रणाम कर के हम आगे बढ़े.

एक जमानतदार से हम ने गुजारिश की, ‘‘कमाई हो जाती है?’’

बदले में बेचारे ने मुंह लटका कर कहा, ‘‘कहां साहब, बस गुजारा चल जाता है. मेरे चाचा की दिल्ली में प्रैक्टिस है. बहुत अच्छी कमाई होती है. हम तो अपनी खेतीकिसानी के चक्कर में फंसे हैं वरना अच्छी प्रैक्टिस के लिए तो महानगरों में ही जाना अच्छा है. वहां बड़ेबड़े लोग आते हैं, अच्छी कमाई हो जाती है.’’

‘‘लेकिन अगर कोई बदमाश भाग गया तो पुलिस वाले आप को पकड़ेंगे.’’

‘‘कहां से पकड़ेंगे? हमारे जो राशनकार्ड और मतदाता पहचानपत्र हैं, सब नकली हैं. ये जो जमीन के कागजात आप देख रहे हैं, ऐसी जगह कहां है, हमें नहीं पता. सारी चीजें यहीं बन जाती हैं कोर्ट कैंपस में ही.’’

हम उस के ज्ञान की सीमा के आगे नतमस्तक हुए. भारत अनेकता में एकता का देश क्यों कहलाता है इस का एक प्रत्यक्ष उदाहरण मिला. इतनी लीलाओं के चश्मदीद गवाह बनने के कारण 2 बज गए. तब तक हम 8 कप चाय और

10 समोसे खा चुके थे. चाय और समोसों की विशेषताओं का वर्णन करें तो अलग से एक पोथा भर जाएगा. 3 बजे हमारा पतन हो गया. हम चाय वाले की बैंच पर ही निढाल से जा गिरे. चाय वाले ने हमें देखा और एक मुसकराहट फेंकी.

4 बजे हमारे अंदर नई चेतना जगी. चेतना को ले कर चैतन्य होते कि अचानक शोर मचा.

‘‘भाग गया, भाग गया.’’

पुलिस वाले दौड़ने लगे. लोग भागने लगे. हमारा चायवाला इन परिस्थितियों में भी निश्छल भाव से मुसकरा रहा था. हम ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक इस अफरातफरी का कारण जानना चाहा उस ने तो बड़े आत्मविश्वास से सूचित किया.

‘‘एक कैदी भाग गया है.’’

थोड़ी देर के बाद उस ने आकाशवाणी सी की, ‘‘यह काम उस के वकील का है. वकीलों का काम ही यही है. अपने क्लाइंट की हर संभव मदद करते हैं. उन के लिए असंभव कुछ है भी नहीं. उन की बड़ी धाक है इस कचहरी में.’’

हम पुलकित हुए. कितने महानमहान वकील हैं इस दुनिया में. अंदर वालों की भी सेवा और बाहर वालों की भी. ‘मेरा भारत महान’ ऐसे ही नहीं कहते. अभी हमारा चिंतन आगे बढ़ता कि तलवार साहब आते दिखे. आते ही बोले, ‘‘आज आप का काम नहीं हो सकेगा. आप कल आइए.’’

हम ने सहमते हुए निवेदन किया, ‘‘जी, मैं रोज नहीं आ सकता. विद्यालय से और छुट्टी लेना इतना आसान नहीं है.’’

‘‘ठीक है, फिर आप मुंशीजी से समझ लीजिए.’’

हम मुंशीजी की शरण में पहुंचे. मुंशी नामधारी जीव कचहरी का आदिम प्राणी है. जब कचहरी नहीं थी तब भी मुंशी था. कचहरी नहीं रहेगी तब भी मुंशी रहेगा. वकीलों के प्राण इसी तोतारूपी मुंशी में कैद रहते हैं. यह एक ऐसा जीव है जिस के पास सोचने की क्षमता तो बहुत होती है मगर समझने की नहीं. वह केवल अपनी ही बात समझ सकता है, नहीं तो पैसे की बात समझता है.

हम ने उस से समझने की कोशिश की. समझातेसमझाते उस ने 500 रुपए रखवा लिए. अब हम जिंदगी की नाना प्रकार की चिंताओं से मुक्त हो गए. हमारा एक ही काम था. मुंशीजी को फोन करना. वे कभी कल नहीं कहते, केवल आज कहते. हमारी उन की अच्छी जानपहचान बन गई लेकिन एफआईआर की नकल नहीं निकली.

आखिर 1 मास के उपरांत हमें नकल मिल गई. हम युरेकायुरेका कह कर थोड़ा नाचे. शाम को तलवार साहब का फोन आया, ‘‘कहां हैं साहब, आप के दर्शन ही नहीं हो रहे. आइए, चाय पीते हैं.’’

हम उन के घर पहुंचे. इलायची वाली चाय पेश की गई. हमारी आवभगत हो रही थी लेकिन पता नहीं क्यों हमारे दिल की धड़कन थम ही नहीं रही थी. हम चौकन्ने हो रहे थे. आखिरकार, इंतजार खत्म हुआ. वकील साहब बोले, ‘‘आप का केस पढ़ लिया है. ऐसा तगड़ा डिफैंस तैयार करेंगे कि भाईसाहब एक ही बहस में बाहर आ जाएंगे. साहब, यह भी कोई बात हुई कि जो आदमी सीन में मौजूद ही नहीं हो उस के खिलाफ केस दायर हो जाए. हम तो दारोगा को भी घसीटेंगे. कब तक चुप रहेंगे हम लोग?’’

हमारे अंदर जिस कुंठा ने जन्म ले लिया था उस का अंत हो गया. एक नया जोश भर गया.

‘‘हम तो कहते हैं कि आप के पड़ोसी को भी किसी न किसी मामले में यहां घसीट लाएंगे. आखिर उसे भी तो सबक मिलना चाहिए कि आप क्या चीज हैं. चला है आप से टकराने. उसे पता नहीं है कि आप क्या चीज हैं. हम जो आप के साथ हैं. इस बार बच्चू को ऐसा सबक सिखा दीजिए कि फिर कभी आप की ओर देखने का साहस ही न करे. कहते हैं न कि क्षमा शोभती उस भुजंग को जिस के पास गरल हो.’’

आगे पढें- अपने पड़ोसी के विनाश के सामने तो मेरे लिए इस से…

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