पूर्व कथा

पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.

सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.

अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है और कुछ ही महीने बाद पुरवासुहास का भी विवाह हो जाता है. पुरवा महसूस कर रही थी कि सुहास का ध्यान समाजसेवा में अधिक रहता है. वह दूसरों की मदद के लिए दुकान पर भी ध्यान न देता.

पुरवा अब निरंतर सुहास को उस की जिम्मेदारी का एहसास कराने की कोशिश करती. शीघ्र ही वह दिन भी आता है जब पुरवा को पता चलता है कि वह मां बनने वाली है. सुहास पापा बनने के सुखद एहसास से झूम उठता है.

थोड़े दिनों बाद पुरवा को पता चलता है कि सुहास पुराना कारोबार खत्म कर कंप्यूटर का कार्य आरंभ करना चाहता है तो वह हैरान हो जाती है और बेचैनी से सुहास के घर लौटने की प्रतीक्षा करने लगती है. लेकिन वह बेला भाभी के पति सागर को अस्पताल ले जाने के कारण रात देर से घर आता है, पुरवा की तबीयत खराब होने पर अस्पताल में भरती कराया जाता है. उस का हालचाल पूछने बेला घर आती है तो पुरवा उस से थोड़ी तीखी बात करती है, तब सुहास पुरवा पर बिगड़ता है. सुहास से नाराज पुरवा अपने मातापिता के साथ मायके चली जाती है. सुहास के व्यवहार को ले कर वह विचारमंथन करती है.

आखिरकार एक दिन सुहास पुरवा को मनाने ससुराल पहुंच जाता है. पुरवा वापस जाने की शर्त रखती है कि वह घर के गैराज में बुटीक खोलेगी और इस काम में वह उस की मदद करेगा. बुटीक की शुरुआत करने में  सुहास से ज्यादा रजनीबाला पुरवा की मदद करती है. बुटीक निर्माण जोरशोर से शुरू हो जाता है. एक दिन सागर और बेला आते हैं और बताते हैं कि सुहास ने राजनीति ज्वाइन कर ली है, सुन कर सब चौंक जाते हैं.

सुहास घर आता है तब मां राजनीति ज्वाइन करने की बात को ले कर उस से नाराज होती है. लेकिन सुहास सब को समझाता है, पुरवा भी यह सोच कर संतोष कर लेती है शायद सुहास इसी क्षेत्र में सफल हो जाए.

पुरवा के ‘पुरवाई बुटीक’ का उद्घाटन होता है. सुहास वक्त पर नहीं पहुंचता लेकिन देर से आने की माफी मांगते हुए बुटीक के लिए एक बड़ा आर्डर ले कर आता है तो सभी खुश हो जाते हैं.

राजनीति के कार्य क्षेत्र में सुहास का रोमांच बढ़ता जा रहा था. उधर वह दिन भी आता है जब पुरवा प्रसव के लिए अस्पताल में भरती होती है. उसी वक्त पार्टी के नेता भाईजी को चुनावी सरगर्मियों के चलते दूसरे पार्टी के साथ हुई झड़प में गोली लग जाने के कारण सुहास को उन्हें देखने जाना पड़ता है. वापस जब लौटता है तो एक बच्ची का पिता बनने की खुशखबरी मिलती है.

अब आगे…

पुरवा नन्ही बच्ची के साथ एकदम नई दुनिया में जीने लगी थी.

सुहास देर से आता तो बच्ची को प्यार करने के बहाने कहता,

‘‘देखो गुडि़या, तुम्हारा पापा बहुत जल्दी राजनेता बन जाएगा और तब तुम अपने पापा पर बहुत गर्व कर सकोगी.’’

पुरवा समझती थी कि यह बात उसे ही सुनाई गई है अत: मुसकरा देती थी. एक दिन भाईजी के स्वास्थ्य का हाल पूछते हुए पुरवा उदास हो गई. कुछ सोच कर बोली, ‘‘सुहास, एक बात का सचसच उत्तर दोगे?’’

‘‘पूछो,’’ सुहास पलंग पर बिना कपड़े बदले ही लेट गया था.

‘‘क्या सचमुच तुम ने राजनीति ही अपनी मंजिल निश्चित कर ली है?’’ पुरवा उत्सुकता से उस की तरफ देख रही थी.

‘‘यह कैसा सवाल कर रही हो, पुरू?’’ सुहास आश्चर्य से उस की ओर देखते हुए उठ कर बैठ गया.

‘‘पता नहीं कैसा है यह प्रश्न, पर तुम्हारे भाईजी का हाल देख कर मन हिल गया है,’’ पुरवा ने दुख से कहा. यह सच था कि भाईजी को जहां एक दिन में छुट्टी मिलनी थी वहां कई दिन रुकना पड़ गया था. यहां तक कि चुनाव के दिन भी वह अस्पताल में ही थे. पुरवा को 2 दिन बाद ही छुट्टी मिल गई थी और चुनाव वाले दिन सुहास सारा दिन बाहर ही रहा था. पुरवा की बात सुन कर सुहास ने कहा, ‘‘मेरी पुरवा, इतनी कमजोर कब से हो गई है?’’ सुहास ने प्यार से उस के गाल सहला दिए और कहा, ‘‘तुम नहीं जानतीं पुरवा कि तुम ने मुझे कितना बड़ा वरदान दिया है. एक तो यह मासूम सी गुडि़या और दूसरा यह कि तुम ने यह राह दिखा कर मुझ से मेरी पहचान करवा दी है.’’

पुरवा ने मुसकराने की चेष्टा की. बोली, ‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ समय बाद इस क्षेत्र से भी तुम्हारा मन ऊब जाए.’’

‘‘नहीं, पुरू, अब ऐसा नहीं होगा. इस क्षेत्र में आने के बाद मुझे भी ऐसा ही लगने लगा है कि यही मेरी मंजिल है.’’

चुनाव के परिणाम की प्रतीक्षा करते सुहास ने कहा, ‘‘भले ही मैं अभी निर्वाचित न हो सकूं, पर मेरे उत्साह में अब तुम कभी भी कोई कमी नहीं देखोगी.’’

उसी दिन सुहास ने बताया कि भाईजी अब घर पहुंच गए हैं. यह भी बताया कि भाईजी को अस्पताल में अधिक दिन इसलिए रोका गया था क्योंकि उन्हें खतरा बहुत बढ़ गया था. पुरवा ने उदासी से कहा, ‘‘यही डर तो मुझे सहमा रहा है सुहास. इस क्षेत्र में अब जान पर भी बन सकती है,’’ सुहास कुछ देर उसे देखता रहा फिर हंस दिया और हंसते हुए ही बोला, ‘‘जान पर तो कहीं भी बन सकती है पगली. यह डर अपने मन से निकाल दो और अब इस का नाम रखने की चिंता करो.’’

‘‘वह तो मां बहुत जल्दी कोई उत्सव करने वाली हैं और तभी नामकरण भी होगा.’’

‘‘लेकिन तब तक हम इसे कुछ तो कहेंगे,’’ सुहास ने सोचते हुए अचानक कहा.

‘‘हम इसे ‘झंकार’ कहेंगे क्योंकि ये हमारे प्यार के सप्त स्वरों की झंकार है,’’ पुरवा प्यार से बेटी के सर पर हाथ फेरते हुए मुसकरा दी.

बहुत दिनों बाद पुरवा ने अपनी बुटीक पुरवाई में कदम रखा था. उसे देख कर सभी खड़े हो गए.

‘‘आप कैसी हैं मैडम?’’ कंचन ने पूछा. कंचन ने टेलरिंग का कोर्स किया था और उस के सिले हुए कपड़े बुटीक की शान बढ़ा रहे थे.

‘‘मां बता रही थीं कि तुम्हारे सिले कपड़ों की धूम मचने लगी है,’’ पुरवा ने उसे उत्साहित करते हुए कहा.

कंचन ने मुसकरा कर अपनी प्रशंसा सुनी. पुरवा ने फिर तसलीम और मास्टर वरुण से भी बात की. वरुण प्रौढ़ टेलर मास्टर थे और बुटीक की बहुत सी जिम्मेदारियां मां ने उन्हें सौंप रखी थीं. तसलीम ने डिजाइनिंग का कोर्स किया था और उस के हाथ की सफाई की मां बहुत प्रशंसा करती थीं.

पुरवा जाने लगी तो तसलीम ने कहा, ‘‘अब तो मैडम, आप कभीकभी आया करेंगी?’’

‘‘हां तसलीम, यह पुरवाई तो मेरा सपना था. मुझे तो आना ही है.’’

पुरवा वापस पलटी तो देखा मां खड़ी थीं. पुरवा ने उन के चरण स्पर्श करते हुए कहा, ‘‘मां, आप ने तो मेरी कल्पना को अपनी आंखों में उतार लिया हो जैसे. बिल्कुल वैसा ही सजाया है, सबकुछ.’’

‘‘यह तो पता नहीं बेटा, पर यह मैं जान गई हूं कि तुम ने मुझे भी जीने का एक अनोखा मकसद दे दिया है.’’

बहुत दिनों बाद पुरवा ने सुहास की दुकान की भी खबर ली थी. वहां के कर्मचारी ने बहुत उत्साह से बताया कि काम बहुत अच्छा चल रहा है. यह भी बताया कि सुहास सर दिन में रोज कुछ घंटे यहां व्यतीत करते हैं.

उस सुबह धूप खूब चमकीली और ठंडी बयार लिए हुए थी. लान में पड़ी कुर्सियों पर पुरवा और मां बैठ कर चाय पी रही थीं. थोड़ी देर में सुहास के पापा भी वहीं आ कर बैठ गए. चाय का प्याला थामते हुए बोले, ‘‘सुहास अभी सो रहा है क्या?’’

‘‘नहीं, वह तो घर पर ही नहीं हैं,’’ पुरवा ने कहा, ‘‘मेरे उठने से पहले ही जाने कहां चले गए हैं.’’

‘‘ये लड़का भी कमाल है,’’ मां ने प्लेट से बिस्कुट उठाते हुए कहा, ‘‘अभी कल रात तो इतनी देर से अपने भाईजी की जीत के जश्न की पार्टी से लौटा, अब सुबहसुबह फिर गायब है.’’

पापा ने जैसे चौंक कर कहा, ‘‘अरे, आज सुहास का चुनावी परिणाम भी तो पता चलने वाला है.’’

‘‘कहीं वहीं तो नहीं पहुंच गया है,’’ मां ने उत्सुकता से कहा.

पुरवा ऐसे अवसरों पर सदा ही अंतर्द्वंद्व में डूब जाती थी. मां ने उस की तरफ देख कर कहा, ‘‘तुम इन सब बातों को सोच कर परेशान मत हो. अपना और झंकार का ध्यान रखो.’’

‘‘नहीं, मम्मा, मैं इस बात को ले कर परेशान नहीं हूं कि सुहास का चुनाव परिणाम क्या आएगा. बस यही चिंता होती है कि सुहास कहीं मन लगा कर ठहरेंगे या फिर वही पलायन की प्रवृत्ति अपनाएंगे.’’

‘‘इतना सोचो मत बेटा,’’ पापा ने कहा.

‘‘मुझे लगता है अब सुहास में ठहराव आ रहा है,’’ पुरवा पापा से बोली.

एक घंटे बाद सुहास का फोन आया.

‘‘कहां हो सुहास?’’ पुरवा ने पूछा.

‘‘मैं अस्पताल में हूं, पुरू…’’

‘‘अरे, पर क्यों?’’ पुरवा उसे बीच में ही रोक कर घबराहट में बोली.

‘‘परेशान मत हो. हमारे पार्टी आफिस के चौकीदार नारायण का जवान बेटा बहुत बीमार है. उसी के चेकअप के सिलसिले में आकाश ने सुबहसुबह बुलाया था.’’

‘‘क्या कहते हैं डाक्टर?’’ पुरवा ने पूछा.

‘‘अभी तो एक्सरे वगैरह हुआ है. पता तो बाद में चलेगा,’’ सुहास की आवाज में थकान थी.

‘‘कब तक आओगे?’’ पुरवा ने पूछा. उसी समय झंकार रोने लगी थी. पुरवा ने उसे गोद में उठा लिया. उधर से सुहास ने कहा, ‘‘क्यों रो रही है?’’

‘‘शायद भूखी है,’’ पुरवा उसे थपकते हुए बात करने लगी.

‘‘सुनो पुरवा, मैं ने यह बताने के लिए फोन किया था कि मैं ने जल्दी में तुम्हारे पर्स से 2-3 हजार रुपए निकाल लिए थे.’’

‘‘अच्छा किया, सुहास. अपना कार्य पूरा कर के आना. कुछ चायवाय वहीं पर ले लेना.’’

सुहास का फोन पा कर पुरवा आश्वस्त हो गई थी. कभीकभी सुहास को ले कर उस का मन दुविधा में अभी भी घिर जाता है. लेकिन ऐसे विचारों को वह आजकल जल्दी ही झटक देती है. उस का मन बारबार कहता है कि सुहास अब सचमुच जीवन के महत्त्व को समझने लगा है. शायद अब वह अपनी सही दिशा निर्धारित कर के एक नई पहचान बना सकेगा.

सुहास के निर्वाचन का परिणाम भी आना था. पुरवा उस विषय में बात करना चाहती थी पर सुहास ने अधिक बात नहीं की. संभवत: परिणाम से पहले ही घबरा रहा है. यही सोच कर पुरवा मुसकरा दी. अब वह नियम से कुछ समय अपने बुटीक में भी बैठने लगी थी. मन में तो उस के भी उथलपुथल थी कि देखें क्या होता है? दोपहर ढली और शाम हो गई पर सुहास की कोई खबर नहीं थी. मांपापा और पुरवा बहुत परेशान थे. सुहास चुनाव हार गया था. क्या इसीलिए घर वापस नहीं आया था. पापा बारबार कह रहे थे, ‘‘यह सब है ही बकवास. सीधासादा अपना एक काम तो संभलता नहीं है, राजनीति का शौक चढ़ा है.’’

‘‘पापा, आप ही इतनी जल्दी हथियार डाल देंगे तो सुहास तो वैसे ही बहुत जल्दी निराश हो जाते हैं,’’ पुरवा ने समझाना चाहा.

बहुत से परिचितों के फोन आ रहे थे कि हारजीत तो लगी रहती है, हिम्मत नहीं हारनी चाहिए.

रात 10 बजे सुहास ने घर में प्रवेश किया. मां ने देखते ही कहा, ‘‘कहां चले गए थे, सुहास? न कोई फोन न तुम्हारा अतापता.’’

‘‘बस, मम्मा, काम था बहुत जरूरी,’’ उस ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और कमरे में चला गया. पुरवा ने देखा तो बोली, ‘‘बहुत थके से लग रहे हो. क्या बात है?’’

‘‘भाईजी के यहां चला गया था. वहीं देर हो गई,’’ सुहास अधिक कुछ कहने से बचता हुआ कपड़े बदलने लगा.

‘‘ठीक है. खाने पर सब इंतजार कर रहे हैं. जल्दी से फ्रेश हो लो.’’

कपड़े बदल कर हाथमुंह धो कर सुहास थोड़ा तरोताजा सा लगा. बाल काढ़ते हुए पुरवा से बोला, ‘‘क्या बात है, कोई मेरी हार की चर्चा नहीं कर रहा है.’’

‘‘चर्चा करने या न करने से क्या होता है. हारजीत तो जीवन का एक हिस्सा है, सुहास,’’ पुरवा ने मुसकरा कर कहा.

‘‘हां पुरवा, यह मत सोचना कि मैं हार से घबरा कर मुंह छिपाता फिर रहा था,’’ सुहास ने अपने शब्दों पर जोर दे कर कहा, ‘‘आज नहीं तो कल मैं जीत कर भी दिखाऊंगा, और शायद सीधा लोकसभा की सीट जीत कर दिखाऊं.’’

‘‘तुम्हारा उत्साह देख कर अच्छा लगा, सुहास,’’ पुरवा के चेहरे पर सचमुच एक नई चमक थी, शायद यह सोच कर कि सुहास बहुत शीघ्र निराश हो जाने के अंधेरे से बाहर निकल रहा है. सुहास ने निकट आ कर पुरवा के गालों पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘जीतने के लिए पहले मुझे अपनी पहचान बनानी होगी और उसी का शुभारंभ मैं ने आज कर दिया है.’’

सुहास ने बड़ी तन्मयता से बताया कि उस ने समाज सेवा का व्रत भी उठा लिया है, उस के लिए कई संस्थाओं से आज मिलता रहा. सारा दिन इसी सब में निकल गया पर सुहास ने यह छिपा लिया कि उस ने एड्स पीडि़त लोगों की सेवा का भी व्रत ले लिया है.

‘‘तुम तो जानती हो पुरू, कि मैं किसी को कष्ट में देख कर स्वयं को रोक नहीं पाता हूं,’’ उस ने कहा.

‘‘जानती हूं, सुहास. तुम्हारी इसी भावना ने तो मुझे तुम्हारी निकटता दी थी.’’

‘‘तो पुरवा, आज मैं तुम से भी एक वादा चाहता हूं,’’ सुहास की आंखों में अनोखी चमक थी.

पुरवा को लगा कहीं यह चमक अब जल्दीजल्दी बहुत कुछ पा लेने की चाहत तो नहीं है. बोली, ‘‘कैसा वादा?’’

सुहास ने एक पल सोच कर कहा, ‘‘देखो पुरवा, तुम्हारी हर इच्छा को अब मैं अपनी इच्छा बना कर दिखाऊंगा. एक कुशल व्यापारी, एक अच्छा राजनेता, जो अपने लिए नहीं, देश के लिए समर्पित हो.’’

‘‘फिर समस्या क्या है?’’ पुरवा ने पूछा.

‘‘नहीं, समस्या नहीं, मेरी कमजोरी समझ लो,’’ सुहास कहते हुए हिचक रहा था पर साहस जुटा कर कह ही दिया, ‘‘अगर तुम्हें पता चले कि कुछ ऐसी जगहों पर भी मैं सेवा के लिए कभीकभी जाता हूं जिन से लोग प्राय: दूरदूर रहना पसंद करते हैं तो तुम कभी नाराज नहीं होगी.’’

पुरवा ने हतप्रभ आंखों से उसे देखा. सोच में पड़ गई कि सुहास का संकेत कैसे लोगों से है. सुहास ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम नाराज हो जाती हो तो मेरा साहस चुकने लगता है. तुम्हारे प्रोत्साहन से ही मैं किसी भी दिशा में सफलता पाने में अपनेआप को सक्षम समझने लगा हूं.’’

‘‘मुझे मालूम है, सुहास. यह भी सच है कि कई बार मैं तुम्हारी ऐसी बातों के लिए नाराज हुई हूं पर इसलिए नहीं कि मुझे तुम्हारी सेवाभावना से चिढ़ है, बल्कि….’’

‘‘हां पुरू,’’ सुहास ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘बल्कि इसलिए तुम नाराज हो जाती रही हो कि मैं अपनी जिम्मेदारियां ताक पर रख कर दूसरों के दुख दूर करने दौड़ता रहा हूं.’’

‘‘हां, सुहास.’’

‘‘लेकिन अब मैं जीवन की सचाई को भली प्रकार समझ गया हूं पुरू,’’ सुहास ने उसे प्यार से अपनी बांहों में भर लिया और कहा, ‘‘तुम से वादा करता हूं कि तुम्हारा हर स्वप्न मैं पूरा करूंगा. एक सफल व्यापारी, एक सच्चा राजनेता और अच्छा पति और पिता भी.’’

पुरवा भी प्यार से मुसकरा दी और बोली, ‘‘हां, मुझे पूरा विश्वास था कि मेरा सुहास हमेशा इस तरह जीवन से बेखबर नहीं रह पाएगा. एक न एक दिन वह अपनी मंजिल पा ही जाएगा.’’               -क्रमश:

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