परंतु कैंसर ने न केवल वैदेही के शरीर पर बल्कि उस के दिमाग पर भी असर कर दिया था. सभी समझाते कि अकेले उदासीन बैठे रहना सर्वथा अनुचित है. बाहर निकला करो, लोगों से मिलाजुला करो. लेकिन वह जब भी घर के दरवाजे तक पहुंचती, उस का अवचेतन मन उसे देहरी के भीतर धकेल देता. घर की चारदीवारी जैसे सिकुड़ गई थी. मन में अजीब सी छटपटाहट बढ़ने लगी थी. दिल बहलाने को कुछ देर सड़क पर टहलने के इरादे से गई. मगर यह इतना आसान नहीं था. सड़क पर पहुंचते ही लगा जैसे सारा वातावरण इस स्थिति को घूरने को एकत्रित हो गया हो. आसमान में उस के अधूरे मन सा अधूरा चांद, आसपास के उदास पत्थर, फूलपत्ते, गहराती रात...सभी उस के अंदर की पीड़ा को और गहरा रहे थे. इस अकेली ठंडी सांध्य में वैदेही घर लौट कर बिस्तर पर निढाल हो लेट गई. दिल कसमसा उठा. नयनों के पोरों से बहते अश्रुओं ने अब कान के पास के बाल भी गीले कर दिए थे.
उस की सूरत से उस की मनोस्थिति को भांप कर नीरज बोले, ‘‘वैदू, आगे की जिंदगी की ओर देखो. अभी हमारी गृहस्थी नई है, उग रही है. आगे इस में नूतन पुष्प खिलेंगे. क्या तुम भविष्य के बारे में कभी भी सकारात्मक नहीं होगी?’’
पर वैदेही आंखें मूंदे पड़ी रही. एक बार फिर वह वही सब नहीं सुनना चाहती थी. उस को नहीं मानना कि उस के कारण सभी के सकारात्मक स्वप्न धूमिल हो रहे हैं. अन्य सभी की भांति वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि अब वह पूरी तरह स्वस्थ है. कैंसर के बारे में उस ने जो कुछ भी पढ़ासुना था, उस से यही जाना था कि कैंसर एक ढीठ, जिद्दी बीमारी है. यदि उस के अंदर अब भी इस का कोई अंश पनप रहा हो तो? मन में यह बात आ ही जाती.
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