लेखक- नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’

मनोहर की चाय की गुमटी रेंगरेंग कर चल रही थी. घर का खर्च भी चलाना मुश्किल था. उसी में 5 लोगों का पेट पालना था.

अपने एक खास ग्राहक के कहने पर मनोहर ने गुमटी पर शराब के पाउच भी रखने शुरू कर दिए. 2-4 ग्राहकों को बता भी दिया. फिर क्या था. चाय के बहाने पाउचों की बिक्री बढ़ती चली गई.

थानेदार को यह बात पता चली, तो वह 2 हवलदारों को ले कर गुमटी

पर आ धमका और रोज के 4 सौ रुपए कमीशन मांगने लगा.

मनोहर हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाया, ‘‘साहब, मैं रोज 4 सौ रुपए नहीं दे पाऊंगा. हां, हर महीने इतने रुपए थाने में पहुंचा दिया करूंगा.’’

‘‘तू मुझे 4 सौ रुपए की भीख देगा...’’ कह कर थानेदार ने उसे एक लात मारी और चिल्लाया, ‘‘खुलेआम दारू बेचता है और मुझे 4 सौ रुपए का थूक चाटने को कहता है.’’

मनोहर की पत्नी श्यामा ने दौड़ कर उसे उठाया और थानेदार से बोली, ‘‘हमें माफ कर दीजिए सरकार. हम दारू का धंधा ही छोड़ देंगे.’’

‘‘तू दारू का धंधा छोड़ देगी, तो हमारी आमदनी कैसे होगी? तू दारू बेचेगी और रुपए के साथ सजसंवर कर मेरे पास आएगी,’’ कहते हुए थानेदार ने एक आंख दबाई.

तभी मनोहर की 15, 13 और

9 साल की 3 बेटियां स्कूल से छुट्टी होने के बाद बस्ता टांगे वहां आ गईं.

मनोहर की बड़ी बेटी पायल, जो 9वीं जमात में पढ़ रही थी, को समझते देर न लगी. वह बोली, ‘‘पापा, मैं ने मना किया था न कि दारू मत बेचो. देखो, आज पुलिस आ ही गई. हमारी

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