लेखिका- अर्चना पैन्युली
बेटे की पसंद को स्वीकार करसुनीता जब भी भारत में रह रहे अपने बेटे से फोन पर उस की शादी की बात करती, वह टाल जाता. बेटे का कुंआरापन अब सुनीता को जबरदस्त अखरने लगा था. 6 फुट की उस की हृष्टपुष्ट काठी, 28 साल की जवान उम्र, ऊपर से नौकरी भी अच्छीखासी...ऐसे में ‘सिंगल’ बने रहने का भला क्या तात्पर्य.
कुछ माह पहले ही सुनीता ने भारत के कई अखबारों व वेबसाइट्स पर उस की शादी के लिए वैवाहिक विज्ञापन निकाला था. कई तरह के प्रस्ताव आ रहे थे. लड़की वाले चिट्ठियां, फोन व ईमेल्स से संपर्क कर रहे थे और अपनी लड़कियों के आकर्षक बायोडाटा भेज रहे थे.
भारत में अपने रिश्तेदारों से सुनीता की जब भी बात होती तो वह भी न जाने कितनी लड़कियां सुझा देते. यहां डेनमार्क में रह रहे कुछ भारतीय भी, जब उन्हें पता चलता कि उन का एक काबिल लड़का अविवाहित है, तो दबे शब्दों में अपनी लड़कियों का जिक्र करने लगते. मगर लड़का था कि किसी भी रिश्ते में कुछ रुचि ही नहीं लेता.
सुनीता की पिछली बार जब बेटे से फोन पर बात हुई तो उसे अल्टीमेटम दे डाला, ‘‘हम कुछ नहीं जानते. अगली बार जब हम भारत आएंगे तो मुझे शादी करनी पडे़ेगी, चाहे तू किसी से भी करे.’’
‘‘मां, मैं किसी विधवा से शादी कर सकता हूं? किसी बच्चे वाली अकेली औरत से शादी कर सकता हूं? किसी दूसरे धर्म की लड़की से शादी कर सकता हूं?’’ वह अजीबोगरीब सवाल पूछने लगा.
सुनीता का माथा ठनका, ‘‘यह तू कैसे सवाल पूछ रहा है? क्या तू वाकई किसी...’’