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घर से आ कर निर्मल बहुत खोयाखोया रहने लगा. दफ्तर से लौटते ही सीधा बैडरूम में जा कर लेट जाता. चुपचाप सोचता ही रहता. अब जिंदगी में कोई आकर्षण नहीं रहा. इंदु से मन की बात कहने का कोई सवाल ही नहीं उठता. उस के पास इन फालतू बातों के लिए समय ही कहां है? छोटेछोटे बच्चों की मासूमियत देख और ज्यादा चिंता होती है कि इन्हें सही सामाजिक जीवन कैसे मिल पाएगा. एक तरह से निर्मल सिर्फ पैसा कमाने की मशीन बन कर रह गया तो किसी न किसी रूप में बगावत तो होनी ही थी.

धीरेधीरे निर्मल को हर बात से, हर काम से चिढ़ होने लगी. उस का मन चुपचाप पड़े रहने को होता. वह अकसर छुट्टी लेने लगा और गुमसुम सा पड़ा रहता जबकि इंदु अपने काम में व्यस्त रहती.

इंदु को निर्मल का यों चाहे जब छुट्टी ले लेना बड़ा अखर जाता. आखिर एक दिन वह तुनक ही गई, ‘क्या बात है, आजकल आप दफ्तर के नाम से कतराते हैं.’

‘हां इंदु, अब किसी काम में दिल नहीं लगता है. घबराहट होती रहती है. शांति सी महसूस नहीं होती,’ निर्मल का जवाब सुन कर इंदु उस का मुंह देखती रह गई.

‘इंदु, मैं ने नौकरी से इस्तीफा देने का फैसला कर लिया है. अब नौकरी छोड़ कर गांव चलते हैं और अपनों के बीच रहेंगे.’

इस्तीफा देने की बात सुनते ही इंदु को लगा सारा कमरा घूम रहा है. वह सन्न रह गई.

उस रात वह पलभर भी सो नहीं पाई. अभी से नौकरी छोड़ कर निर्मल करेंगे क्या? यह सही है कि इंदु ने अपनी सारी पकड़ पैसे पर लगा कर काफी पूंजी जमा कर रखी है, पर अभी तो सारे काम सामने पड़े हैं. चारों बच्चों की शिक्षादीक्षा, उन का शादीब्याह, जोड़े हुए पैसों से पेट भरेंगे या फर्ज निभाएंगे. चारों बच्चों के मासूम चेहरों को याद करतेकरते कब सुबह हो गई थी, पता ही नहीं चला.

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