रजनी ने थोड़ी सी अनिश्चितता की हालत में फुलवारी रैस्तरां में प्रवेश किया, उन के हाथ पसीने से भीगे हुए थे. उन्हें घबराहट हो रही थी पर फिर भी बिस्कुटी रंग की साड़ी और लाल ब्लाउज में वे बहुत ही संजीदा और गरिमामय लग रही थीं.
राजीव ने कौर्नर वाली टेबल से हाथ हिलाया तो रजनी तेज कदमों से उस दिशा में चली गईं. राजीव हंस कर बोले, ‘‘मुझे लगा था आप नहीं आएंगी, पर फिर भी एक घंटे से यहां बैठ कर चाय का आनंद ले रहा हूं.’’
रजनी ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘नहीं, आना तो था पर थोड़ी सी अनिश्चितता थी.’’
वेटर और्डर ले कर चला गया तो राजीव बोले, ‘‘रजनी, मेरे प्रस्ताव के बारे में क्या सोचा.’’
रजनी थोड़ा सा झिझकते हुए बोलीं, ‘‘बहुत दुविधा में हूं.’’
राजीव मुसकराते हुए बोले, ‘‘अपने बारे में कब सोचोगी, हमारी जिंदगी हमारी अपनी है, कब तक दूसरों के बारे में सोचती रहोगी?’’
इस से पहले वे कुछ और बोलते, एक कर्कश महिला की आवाज ने उन की बातचीत को कहीं दबा दिया, ‘‘देखा तुम ने, मम्मी इस उम्र में क्या गुल खिला रही हैं?’’
यह रजनी की बहू वंदना की आवाज थी.
रजनी का पुत्र आलोक अपनी मां को आग्नेय नेत्रों से घूरता हुआ बोला, ‘‘मम्मी, आप को क्या हो गया है, क्यों अपना बुढ़ापा खराब कर रही हो, हमारा नहीं, तो कम से कम दीया के बारे में तो सोचा होता, कौन उस का हाथ थामेगा?’’
इस से पहले वंदना कोई और तीर चुभोती, रजनी किसी अपराधिन की तरह सिर नीचा किए जाने लगी. राजीव बरबस बोल उठे, ‘‘रुको रजनी, तुम क्यों ऐसे जा रही हो?’’