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लेखिका : नीलिमा टिक्कू

मनोज का विवाह अंजना से हुआ था. अंजना एक पढ़ीलिखी सुशील लड़की थी. पति व ससुर के साथ उस ने भी फैक्टरी का कामकाज संभाल लिया था. अपने विनम्र व्यवहार से उस ने सास को कभी शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था लेकिन बहू के साथ रोज मंदिर जाने की उन की हसरत, अधूरी ही रह गई थी. अंजना पूजापाठ से पूरी तरह विरक्त एकएक पल कर्म में समर्पित रहने वाली युवती थी.

मनोज के विवाह को 5 साल हो गए थे. सावित्री एक पोती व पोते की दादी बन चुकी थीं. तभी अचानक हुए हृदयाघात में पति का देहांत हो गया. पिता के जाने के बाद मनोज और अंजना पर फैक्टरी का अतिरिक्त भार पड़ गया था. दोनों सुबह 10 बजे फैक्टरी जाते और रात 7-8 बजे तक घर आते. इसी तरह सालों निकल गए.

सावित्री की पोती अब एम.बी.ए. करने अहमदाबाद गई थी और पोता आई.आई.टी. की कोचिंग के लिए कोटा चला गया था. वह दिन भर घर में अकेली रहती थीं. ऐेसे में रमिया का साथ उन को राहत पहुंचाता था. वह रोज रमिया को ले कर ड्राइवर के साथ मंदिर जाती थीं. मंदिर से उन्हें घर छोड़ने के बाद ड्राइवर दोबारा फैक्टरी चला जाता था. रमिया सब को रात का खाना खिला कर अपने घर जाती थी.

‘‘अम्मांजी, क्या सोचने लगीं’’ रमिया का स्वर सुन कर सावित्री देवी की तंद्रा भंग हुई, ‘‘यह देखो, मैं ने कितनी सुंदर साड़ी, पायल व बिछुए खरीदे हैं लेकिन ये सबकुछ आप अपने पास ही रखना. जब विवाह में जाऊंगी तब यहीं से ले जाऊंगी.’’

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