कभी सोचतेसोचते हम कितना कुछ सोच लेते हैं जो बड़ा सुखद, बड़ा मीठा होता है और कभीकभी कड़वा और डरावना भी कल्पना में आ कर चला जाता है.

उस दिन सहसा एक दूर के रिश्तेदार के दाहसंस्कार पर जाना पड़ा. पता चला जाने वाले ने आत्महत्या कर ली थी. क्या हुआ, क्यों हुआ, इस पर तो परिवार वाले भी असमंजस और सदमे में थे लेकिन जाने वाला चर्चा का विषय जरूर बना था. हर आने वाला चेहरा एक सवालिया निशान बना दूसरे का चेहरा देख रहा था.

‘‘क्या हुआ, भाई साहब, कुछ पता चला?’’

‘‘क्या पतिपत्नी में झगड़ा हुआ था? सुना है आजकल हर रोज झगड़ा होता था. बनवारी भाई साहब तो कईकई दिन घर पर खाना भी नहीं खाते थे. कहते हैं, कल रात भी सुबह से भूखे थे. खाली पेट जहर ने असर भी जल्दी किया. बस, खाते ही गरदन ढुलक गई...’’

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‘‘कौन जाने खुद खा लिया या किसी ने खिला दिया. अब मरने वाला तो उठ कर बताने से रहा कि उसे किसी ने मारा या वह खुद मरा.’’

मैं लोगों की भीड़ में बैठा सब सुन रहा था. तरहतरह के सवाल और तरहतरह के जवाब. संवेदना कहां थी वहां किसी के शब्दों में. मरने वाले ने खुद ही अपनी मौत को एक तमाशा बना दिया था. पुलिस केस बन गया था जिस वजह से लाश का पोस्टमार्टम होना भी जरूरी था.

जो चला गया सो गया लेकिन अपनी मौत पर रोने वालों के मन में दुख कम गुस्सा आक्रोश अधिक छोड़ गया. पत्नी पर कोई भी ससुराल का सदस्य ताना कस सकता था, ‘अरी, तू तो अपने पति की सगी नहीं हुई जिस का दिया खाती थी, तो भला हमारी क्या होगी.’

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