रेखा के पिता ने चाय पी कर जम्हाई ली और भीतर चले गए. प्रदीप वहीं बैठा रहा. उस ने चाय पीतेपीते कहा, ‘‘चाय तो पीता ही रहता हूं, लेकिन सच कहूं रेखाजी, ऐसी चाय कभी नहीं पी मैं ने. आप ने ही बनाई होगी?’’
‘‘जी,’’ रेखा लजा गई, ‘‘आप को पसंद आई?’’
‘‘अजी, क्या कहती हैं, आप,’’ प्रदीप उत्साह से बोला, ‘‘काश, ऐसी चाय रोज मिल सकती.’’
रेखा ने साहस कर कहा, ‘‘तो रोज आ कर पी जाया करें. मैं रात को साढ़े 9 बजे लौटती हूं.’’
प्रदीप बोला, ‘‘मौका मिलेगा तो जरूर आऊंगा, मिस रेखा. आप जितनी भली हैं, उतनी ही…मेरा मतलब है कि उतना ही आकर्षण है आप में.’’
रेखा का चेहरा लाल हो गया. किसी ने आज तक उस से ऐसी बात नहीं कही थी, और यह सुंदर युवक.
‘‘आप जरूर आया करें. मैं इंतजार करूंगी.’’
तब से प्रदीप अकसर उस के घर आने लगा. रेखा के बूढ़े पिता और छोटी बहन शोभा से उस ने अच्छी घनिष्ठता बना ली. वह खुशमिजाज और बातचीत में चतुर था. शाम को आता तो साथ में कुछ नमकीन या मीठा लेता आता. 16 साल की शोभा उस के लिए चाय बनाती और वह रेखा के आने तक रुका रहता. रेखा के पिता इस मिलनसार, शरीफ युवक से बहुत खुश थे. रेखा जब आती तो फिर से चाय बनाती थी.
रविवार को रेखा की छुट्टी होती थी. उस दिन मैनेजर जगतियानी खुद रामलाल के साथ जा कर रुपए बैंक में जमा कराता था. रविवार को प्रदीप रेखा को मोटरसाइकिल से घुमाने ले जाता. कभी सिनेमा तो कभी किसी रैस्तरां में भी ले जाता.
प्रदीप रेखा की हर बात की बड़ी तारीफ करता था. कहता, ‘‘रेखा, तुम जैसी सम झदार और अच्छी लड़की मैं ने कहीं नहीं देखी.’’
31वें वर्ष में कदम रख रही रेखा को अपने लिए लड़की शब्द सुन कर गुदगुदी सी होती थी. कहती, ‘‘तुम तो मु झे बना रहे हो.’’
‘‘सच कहता हूं,’’ प्रदीप गंभीर हो जाता, ‘‘तुम हीरा हो. जो तुम्हारा हाथ थामेगा, वह बहुत खुशनसीब होगा.’’
अब तक पुरुषों की प्रशंसात्मक दृष्टि या रोमांस से अपरिचित और उस के लिए तरसती रही रेखा प्रदीप की इन बातों में भूल जाती कि वह बहुत असुंदर है, 30 साल पार चुकी है और प्रदीप उस से उम्र में छोटा और स्मार्ट युवक है. वह उस की बातों पर विश्वास कर लेना चाहती थी. वह और प्रशंसा सुनने के लिए कहती, ‘‘मैं तो इतनी बदसूरत.’’
प्रदीप हंसता, ‘‘खूबसूरती और गोरी चमड़ी को देखने वाले बेवकूफ होते हैं. स्त्री का असली सौंदर्य तो उस के भीतर छिपा रहता है, रेखा. तुम देखने में भले ही बहुत सुंदर न हो लेकिन तुम में एक जबरदस्त आकर्षण और सम्मोहन है. उसे तुम क्या जानो.’’
और, रेखा के ऊपर जैसे नशा छा जाता. घर लौट कर वह आईने में खुद को निहारती रहती. क्या सच में वह आकर्षक है? आईना तो उस का वही पुराना अक्स दिखाता है. किंतु उसे लगता, वह आकर्षक हो गई है.
प्रदीप पिछले रविवार को उसे शहर के बाहर झील के किनारे बने रैस्तरां ले गया था. वहां झील के पास झाड़ीनुमा पेड़ों के बीच बैठने के लिए अलगथलग मेजें लगी हुई थीं. बैरे सामने के होटल से सामान ला कर परोसते. लोग आजादी के मजे लेते हुए खातेपीते, प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते.
प्रदीप ने डोसे, चिप्स और कौफी का और्डर दिया.
‘‘यहां कितना अच्छा लग रहा है,’’ रेखा विभोर थी, ‘‘सच प्रदीप, मैं पहले कभी यहां नहीं आई, बल्कि मैं तो कहीं किसी होटल या रैस्तरां में भी नहीं जाती. अकेली…’’
‘‘छोड़ो, अब तुम अकेली नहीं हो, रेखा,’’ प्रदीप ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘मैं तुम्हारा दोस्त हूं, अब.’’
‘‘मेरी दोस्ती से तुम्हें क्या मिलने वाला है?’’ रेखा ने उसे टटोलना चाहा.
प्रदीप हंसा, ‘‘मु झे तुम्हारा साथ ताजगी से भर देता है. सच मानो, जिंदगी में बहुत सी सुंदर लड़कियां मिलीं, लेकिन किसी से इतना प्रभावित न हुआ जितना तुम से.’’
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‘‘ झूठे…’’ रेखा व्याकुलता से उसे देखने लगी.
‘‘सच, तुम मेरे लिए संसार की सब से सुंदर और योग्य लड़की हो.’’
‘लड़की’ शब्द से रेखा रोमांचित हो उठी. प्रदीप के मुंह से वह बारबार लड़की शब्द सुनना चाहती थी. बोली, ‘‘मैं और लड़की. लड़की तो शोभा है.’’
‘‘शोभा?’’ प्रदीप हंसा, ‘‘वह बच्ची है. उस में वह सुंदर नारीत्व कहां है? छोड़ो रेखा, मैं आज तुम्हारे सिवा और किसी का नाम नहीं लेना चाहता बीच में.’’
‘‘क्या, सच?’’ रेखा कुछ आगे झुकी, ‘‘सो, क्यों भला?’’
‘‘क्योंकि…बुरा न मानो, तो सच कहूं…’’ प्रदीप ने गंभीरता से कहा, ‘‘मैं तुम्हें प्यार करता हूं.’’
रेखा के कान सनसना उठे. कुछ देर तो जैसे उसे होश ही न रहा. प्रदीप ने उस के हाथों को दबा कर सचेत किया, ‘‘बैरा आ रहा है.’’
बैरा आया, क्या रख गया, रेखा को कुछ होश ही नहीं था. वह तो प्रदीप की बात के नशे में मस्त थी. प्रदीप ने उस का हाथ दबाया, ‘‘खाओ…’’
उस दिन का नाश्ता रेखा को अपने जीवन का सब से स्वादिष्ठ नाश्ता लगा. वह तरंगों में झूल रही थी. उस ने सोचा भी न था कि उस के जीवन में कभी कोई ऐसा मौका आएगा, जब कोई सुंदर युवक उसे कहेगा, ‘तुम बड़ी सुंदर हो, मैं तुम्हें प्यार करता हूं,’ वही आज अचानक हो गया है.
लौटते समय प्रदीप ने कहा, ‘‘आज तुम मेरे घर चलो तो कैसा रहे?’’
रेखा बोली, ‘‘तुम्हारे घर वाले क्या सोचेंगे?’’
‘‘आज तो घर पर सिर्फ मेरे पिताजी हैं. मां और भाईबहन एक नातेदारी में शादी में गए हुए हैं. तुम्हें अपने पिताजी से मिलाऊं.’’
उस ने रेखा के जवाब का इंतजार किए बिना ही मोटरसाइकिल मोड़ दी. शहर के दूसरे किनारे बसे एक छोटे से साधारण दोमंजिला घर के आगे मोटरसाइकिल खड़ी की, ‘‘मेरा गरीबखाना.’’
रेखा के साथ बरामदे में आ कर उस ने घंटी बजाई. कई बार बटन दबाया, किंतु दरवाजा नहीं खुला. बोला, ‘‘पिताजी जरूर घूमने निकले हैं. 9 बजे रात तक लौटते हैं. खैर, कोई बात नहीं, मेरे पास भी चाबी है.’’
अपनी चाबी से दरवाजा खोल कर वह रेखा को भीतर लाया. साधारण सी बैठक. सोफा, टीवी, दीवान आदि से सजा हुआ. एक तरफ भीतर जाने का दरवाजा.
प्रदीप भीतर देख आया. बोला, ‘‘जरूर वे बाहर हैं. खैर, उन के आने तक बैठते हैं. तुम्हें जल्दी तो नहीं है?’’
रेखा ने कहा कि उसे कोई जल्दी नहीं है.
‘‘तो आज मेरी ही बनाई चाय पियो,’’ प्रदीप हंसा, ‘‘तुम्हारे जैसी तो क्या बनेगी, किंतु…’’
वह भीतर चला गया. रेखा की आंखों के आगे रंगीन सपने तैरते रहे. प्रदीप उसे प्यार करता है? अपने पिता से मिलाने लाया तो है. अगर शादी हुई तो वह इसी घर में आएगी.
प्रदीप चाय ले आया. रेखा को वह मामूली चाय भी अमृत जैसी लगी प्रदीप ने बनाई थी इसलिए. प्रदीप ने उस का हाथ अपनी हथेली में दबा कर कहा, ‘‘रेखा, तुम मु झ से प्यार करती हो?’’
रेखा शरमा गई. उस की आंखें जैसे शराब के नशे में थीं. प्रदीप बोला, ‘‘तुम्हारी आंखें सच बता रही हैं. हम दोनों जल्द शादी करेंगे.’’
‘‘सच?’’ रेखा ने ऐसे कहा जैसे बच्चे को मिठाई देने का वादा किया गया हो और वह उस पर विश्वास नहीं कर पा रहा हो.
प्रदीप बोला, ‘‘बिलकुल सच. मेरे घर वाले मेरी बात नहीं टालेंगे. हां, तुम्हारे पिताजी की राय.’’
‘‘वह तो तुम्हें बहुत अच्छा लड़का सम झते हैं. खुशी से राजी हो जाएंगे. लेकिन प्रदीप, क्या सच कहते हो या यह सब सपना है?’’
‘‘सपना?’’ प्रदीप उस के नजदीक आ गया. उसे आलिंगन में कस कर उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए. चाय पीने के बाद ही से रेखा पर अजीब सी मदहोशी छाने लगी थी. बदन में कामोत्तेजना सनसनाने लगी थी. चाहती थी, प्रदीप उसे आलिंगन में ले कर पीस डाले. 31 साल के एकाकी, शुष्क और पुरुषस्पर्श से वंचित उस के नारीत्व में बाढ़ सी आ गई. वह प्रदीप से लिपट गई. वह कब उसे भीतर के कमरे में ले गया, उसे पता ही न चला.
प्रदीप उसे रात 8 बजे घर पहुंचा गया था. उस समय तक प्रदीप के पिता घूम कर वापस नहीं लौटे थे, इसलिए उन से भेंट न हुई. प्रदीप ने रेखा के पिता के चाय पीने का अनुरोध नम्रतापूर्वक अस्वीकार करते कहा कि आज घूमतेफिरते कई बार चाय पी चुके हैं, सो माफ करें. रेखा ने रात को खाना नहीं खाया. शोभा से कह दिया कि उस ने भारी नाश्ता कर लिया है. असल में उस की आत्मा ऐसी तृप्त हो गई थी कि सिर्फ सो जाने का मन हो रहा था.
रातभर रेखा के बदन में मीठी टूटनभरी खुमारी छाई रही. पहली बार का यह पुरुष संसर्ग उसे एक ऐसे अद्भुत लोक में ले गया, जहां वसंत के सिवा कुछ नहीं होता. रातभर मीठे सपने आते रहे.
सुबह जागी तो बदन में मीठे दर्द के साथ ताजगी भी थी. नहाधो कर वह कार्यालय पहुंची. दिनभर उस का मन घबराता रहा और सोचती रही कि शायद अब प्रदीप न मिले.
लेकिन प्रदीप मिला. वह रोज की तरह रामलाल के साथ रुपए जमा करा कर साढ़े 9 बजे आई, तो वह चौराहे पर ही खड़ा था.
‘‘रेखा…’’
रेखा चौंक पड़ी. उस का मन खिल उठा. सामने प्रदीप था. वह धीरेधीरे उस के पास आई, तो वह बोला, ‘‘कैसी हो?’’
रेखा उस से आंखें मिलाने में शरमा रही थी. प्रदीप बोला, ‘‘आओ, मोटरसाइकिल पर बैठो.’’
‘‘घर सामने ही तो है,’’ रेखा बोली.
वह धीरे से बोला, ‘‘तुम्हारा असल घर तो वह है जहां हम अभी चलेंगे, रेखा रानी. आओ, बैठो.’’
रेखा रोमांचित हो उठी. मंत्रगुग्ध सी मोटरसाइकिल के पीछे आ बैठी. प्रदीप अपने घर की तरफ चल पड़ा. रेखा का बदन बारबार सिहर रहा था. प्रदीप उसे भीतर के कमरे की ओर ले चला, तो बोली, ‘‘तुम्हारे पिताजी?’’
‘‘आज वे भी शादी में चले गए हैं. सभी लोग 15-20 दिनों बाद लौटेंगे. मेरठ में हैं. हमें बिलकुल आजादी है.’’
रेखा के अंतर्मन में कुछ खटक रहा था. लेकिन वह भी अपने भीतर की प्यास बु झाने का लोभ रोक नहीं पाई. उस दिन भी दोनों पिछले दिन की तरह ही आनंद में डूबते चले गए.
तब से जैसे रोज का यह नियम बन गया. प्रदीप का घर ऐसी जगह पर था जहां आतेजाते पड़ोसियों की नजर नहीं पड़ती थी. रेखा भी अब पुरुष संसर्ग की आदी हो गई थी. वह बहुत संतुष्ट और प्रसन्न थी. एक दिन उस ने कहा, ‘‘प्रदीप, मान लो, कुछ गड़बड़ी हुई तो?’’
प्रदीप ने उसी दिन उसे घर पहुंचाते वक्त दवा की दुकान से गोलियों का एक पैकेट खरीद दिया, और बताया, ‘‘इस में से एक गोली रोज लेनी है, फिर तो निश्चिंत…’’
एक दिन रेखा औफिस जा रही थी कि प्रदीप अपनी मोटरसाइकिल पर तेजी से जाता हुआ दिखा. वह ठिठक गई. प्रदीप के पीछे एक गोरी, सुंदर सी लड़की बैठी हंसहंस कर उस से बातें करती जा रही थी. प्रदीप ने उसे नहीं देखा. मोटरसाइकिल तेजी से आगे बढ़ गई.
उस दिन रेखा से अपने काम में कई बार भूल हुई. मैनेजर जगतियानी ने झल्ला कर कह दिया, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है तो घर जा कर आराम करो.’’
रेखा ने यही उचित सम झा. वह घर आ गई. उस दिन वह जैसे अंगारों पर लोटती रही. शाम को वह चौराहे पर गई जहां बस रुकती थी और जहां उसे प्रदीप मिलता था. आज वह नहीं मिला. रेखा की वह रात जागते बीती. ईर्ष्या से वह जली जा रही थी. प्रदीप उसे धोखा दे रहा है क्या? यह तो रेखा से सच्चे प्रेम की बात कहता है और वह लड़की. कहां वह स्मार्ट, खूबसूरत यौवन से छलकती हुई नवयौवना, और कहां खुद रेखा. सपाट से बदन वाली असुंदर, अधेड़ कुमारी.
अगला दिन भी उसी तरह कांटों पर लोटते बीता. रात में वह घर के पास बस से उतरी, तो प्रदीप खड़ा मिला. रेखा ने तुरंत पूछा, ‘‘कल सवेरे तुम्हारे साथ वह कौन लड़की थी, प्रदीप?’’
‘‘लड़की?’’ प्रदीप ने पलभर सिर खुजलाया. हंस कर बोला, ‘‘ओह…याद आया…ललिता. हां, वह मेरी अपनी चचेरी बहन है, ललिता. मैं ने तुम्हें बताया तो था कि मेरे छोटे चाचाजी का घर यहीं है. कल ललिता का जन्मदिन था. उस ने मु झे भी निमंत्रण दे रखा था. सवेरे ही मेरे घर आई थी और मु झे कुछ खरीदारी के लिए अपने साथ बाजार ले गई थी. वहीं तुम ने देखा होगा. कल शाम को वहीं फंसा रहा था, तभी तो तुम से नहीं मिल पाया. क्या हुआ?’’
‘‘ओह.’’
प्रदीप मुसकराया, ‘‘तुम्हें कुछ गलतफहमी हो गई है क्या?’’
‘‘नहीं तो,’’ रेखा लज्जित हो कर बोली, लेकिन उस की आंखें कुछ और ही कह रही थीं.
प्रदीप हंस पड़ा. बोला, ‘‘रेखा, तुम निश्ंचत रहो. तुम्हारे सिवा मेरे जीवन में और कोई स्त्री न है, न रहेगी.’’
और वह उसे अपने घर ले गया. रेखा अब पुरुष संसर्ग की आदी हो चली थी. अकसर वह पूछती, ‘‘हम शादी कब करेंगे, प्रदीप? बहुत देर हो रही है…’’
प्रदीप कहता, ‘‘डार्लिंग, पिताजी ने पहले एक जगह मेरी शादी की बात चलाई थी. असल में, मेरी बड़ी बहन की शादी के लिए उन्होंने कर्ज लिया था और कर्ज पटाने के लिए उन लोगों की लड़की से मेरी शादी की बात तय कर दी थी. इस तरह वे लोग अपना रुपया छोड़ देते, अलग से दहेज भी दे रहे थे. लेकिन वह लड़की मु झे बिलकुल पसंद नहीं है. मैं ने इनकार कर दिया.’’