लेखक – महेश कुमार केशरी

“पापा लाइट नहीं है, मेरी औॅनलाइन क्लासेज कैसे   होंगी? कुछ दिनों में मेरे सैकंड टर्म के एग्जाम शुरू होने वाले हैं. कुछ दिनों तक तो मैं ने अपनी दोस्त नेहा के घर जा कर पावरबैंक चार्ज  कर के काम चलाया लेकिन अब रोजरोज किसी से पावरबैंक चार्ज करने के लिए कहना अच्छा नहीं लगता. आखिर, कब आएगी हमारे घर बिजली?” संध्या अपने पिता आदित्य से बड़बड़ाती हुई बोली.

“आ जाएगी, बेटा, बहुत जल्दी आ जाएगी,” आदित्य बोला, लेकिन जानता है कि वह संध्या को केवल दिलासा दे रहा है. सच तो यह है कि  अब मखदूमपुर में बिजली कभी नहीं आएगी.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बिजली विभाग ने यहां के घरों की बिजली काट रखी है. पानी की पाइपलाइन खोद कर धीरेधीरे हटा दी जाएगी और धीरेधीरे मखदूमपुर से तमाम  मौलक नागरिक सुविधाएं खुद ही खत्म  हो जाएंगी और, सिर से छत छिन जाएगी. तब वह सुलेखा,  संध्या, सुषमा और परी को ले कर कहां जाएगा? बहुत मुश्किल से वह अपने एलआईसी के फंड और अपने पिता बद्री प्रसाद के रिटायरमैंट से मिले 20 लाख रुपए से  एक अपार्टमैंट खरीद पाया था,  तिनकातिनका जोड़ कर. जैसे गोरैया अपना घर बनाती है. उस ने सोचा था कि अपनी बच्चियों की शादी करने के बाद वह आराम से अपनी पत्नी सुलेखा के साथ रहेगा. बुढ़ापे के दिन आराम से अपनी छत के  नीचे काटेगा. लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकेगा. उसे यह घर खाली करना होगा वरना नगरनिगम वाले आ कर जेसीबी से तोड़ देंगे.

वह दिल्ली से सटे फरीदाबाद के पास मखदूमपुर गांव  में रहता है. पिछले बीसबाइस सालों से मखदूमपुर में 3 कमरों के अपार्टमैंट में वह रह  रहा है. बिल्डर संतोष तिवारी  ने घर बेचते वक्त यह बात साफतौर पर नहीं बताई थी कि यह जमीन अधिकृत नहीं है. यानी, वह निशावली  के जंगलों के बीच जंगलों और पहाड़ों को काट कर बनाया गया एक छोटा सा कसबा जैसा था जहां आदित्य रहता  आ रहा  था, हालांकि, अपार्टमैंट लेते वक्त उस के पिता बद्री प्रसाद और उस की पत्नी  सुलेखा ने मना किया था- ‘मुझे तो डर लग रहा है, कहीं यह जो तुम्हारा फैसला है वह कहीं हमारे लिए बाद में सिरदर्द न बन जाए.’

तब उसी क्षेत्र के एक नामीगिरामी नेता रंकुल नारायण ने सुलेखा, आदित्य और बद्री प्रसाद को आश्वस्त किया था- ‘अरे, कुछ नहीं होगा. आप लोग आंख मूंद कर लीजिए यहां अपार्टमैंट. मैं ने खुद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दिलाए हैं यहां अपार्टमैंट. मैं पिछले पंद्रहबीस सालों से यहां का विधायक हूं. चिंता करने की कोई बात नहीं है.’ रंकुल नारायण का बहनोई था बिल्डर संतोष तिवारी.

यह बात आने वाले विधानसभा चुनाव में पता चली थी. रंकुल  नारायण ने उस साल के विधानसभा  चुनाव में सारे लोगों को आश्वासन दिया था कि आप लोगों को घबराने की कोई जरूरत नहीं है. आप लोग मुझे इस विधानसभा चुनाव में जितवा दीजिए, फिर मैं असेंबली में मखदूमपुर की बात उठाता हूं, कि नहीं, आप खुद ही देखिएगा. कोई नहीं खाली करवा सकता यह मखदूमपुर का इलाका. हम ने आप के राशनकार्ड बनवाए. हम ने आप के घरों में बिजली के मीटर लगवाए. यहां कुछ नहीं था, जंगल था जंगल. लेकिन हम ने जंगलों को कटवा कर पाइपलाइन बिछवाई. आप लोगों के घरों तक पानी पहुंचाया.

कोई बहुत बड़ी बात नहीं है अनाधिकृत को अधिकृत करवाना. असेंबली में चर्चा की जाएगी और कुछ उपाय कर लिया जाएगा. इस मखदूमपुर वाले प्रोजैक्ट में मेरे बहनोई का कई सौ करोड़ रुपया  लगा हुआ है. इसे हम किसी भी कीमत पर  अधिकृत करवा कर ही रहेंगे. और आखिरकार रंकुल नारायण की बातों पर लोगों ने विश्वास कर उसे  भारी मतों से जितवा दिया था. और, रंकुल नारायण के  विधानसभा चुनाव जीतने के सालभर बाद ही सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आया था कि मखदूमपुर कसबा बसने से निशावली के प्राकृतिक सौंदर्य व पर्यावरण को बहुत ही नुकसान हो रहा है. लिहाजा, जो अनाधिकृत कसबा  मखदूमपुर बसाया गया है उसे अविलंब तोड़ा जाए. डेढ़दो महीने का वक्त खुले में रखे कपूर की तरह धीरेधीरे  उड़ रहा था.

“पापा, न हो तो आप मुझे मेरी दोस्त सुनैना के घर में छोड़ आइए. वहां मेरा पावरबैंक चार्ज हो जाएगा और मैं सुनैना से मिल भी लूंगी. मुझे कुछ नोटस  भी उस से लेने हैं.” आदित्य को यह बात बहुत अच्छी लगी सुनैना के घर जाने वाली. बच्ची का मन लग जाएगा, कोविड़ में घर में रहतेरहते बोर हो गई है. आदित्य ने स्कूटी निकाली स्टार्ट करते हुए बोला, “आओ, बेटी, बैठो.”

थोड़ी देर  में स्कूटी सड़क पर दौड़ रही थी. संध्या को सुनैना के घर में छोड़ कर कुछ जरूरी काम निबटा कर वह राशन का सामान पहुंचाने घर आ गया था.

‘मैं, क्या करूं, सुलेखा? तीनतीन जवान बच्चियों को ले कर कहां किराए के मकान में  मारामारा फिरूंगा. और अब उम्र भी ढलान पर होने को आ रही है. आखिर, बुढ़ापे में कहीं तो सिर टिकाने के लिए ठौर  चाहिए ही. कुछ मेरे एलआईसी के फंड हैं, कुछ बाबूजी के रिटायरमैंट का पैसा पड़ा  हुआ है. जोड़जाड़ कर 20 लाख  रुपए तो हो ही जाएंगे. कुछ संतोष तिवारी से निगोशियेट (मोलभाव) भी कर लेंगे.’ और तब ही आदित्य ने 20 लाख रुपए में वह तीन कमरों वाला अपार्टमैंट खरीद लिया था बिल्डर संतोष तिवारी से.

लेकिन, तब सुलेखा ने आदित्य को मना करते हुए कहा था- ‘पता नहीं क्यों ये संतोष तिवारी और रंकुल नारायण मुझे ठीक आदमी नहीं जान पड़ते. इन पर विश्वास करने का दिल नहीं करता.’

लेकिन आदित्य बहुत ही सीधासादा आदमी था, वह किसी पर भी सहज ही विश्वास कर लेता था.

तभी उस की नजर अपनी पत्नी सुलेखा पर गई . शायद 8वां महीना लगने को हो आया है. पेट कितना निकल  गया है. उस ने देखा, सुलेखा नजदीक के चापाकल से मटके में एक मटका पानी सिर पर लिए चली आ रही है. साथ में, उस की 2 छोटी बेटियां परी और सुषमा भी थीं. वह अपने से न उठ पाने वाले वजन से ज्यादा पानी दोदो बाल्टियों में भर कर नल से ले कर आ रही थी. आदित्य ने देखा तो दौड़ कर बाहर निकल आया और सुलेखा के सिर से मटका उतारते हुए बोला- ‘पानी नहीं आ रहा है क्या?’

तभी उस का ध्यान बिजली पर चला गया. बिजली तो कटी हुई है. आखिर, पानी चढ़ेगा तो कैसे? मोटर तो बिजली से चलती है न.

‘नहीं. पानी कैसे आएगा? बिजली कहां है? एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगे न. न हो तो मुझे मेरे पापा के घर कुछ दिनों के लिए पहुंचा दो. जब यहां कुछ व्यवस्था हो जाएगी तो यहां वापस  बुला लेना. बच्चा भी ठीक से हो जाएगा और मुझे थोड़ा आराम भी मिलेगा. यहां इस हालत में   मुझे बहुत तकलीफ हो रही है.  पानी भी नहीं आ रहा है, बिजली भी नहीं आ रही है. सुलेखा चेहरे का पसीना पल्लू से पोंछते हुए बोली.

अभी तक  सुलेखा और बेटियों को, घर  टूटने वाला है, यह बात जानबूझ कर आदित्य ने नहीं बताई है. खांमखां वे परेशान हो  जाएंगी.

‘हां पापा, घर में बहुत गरमी लगती है. पता नहीं बिजली कब आएगी. हमें नानू के घर पहुंचा दो न पापा,” परी बोली.

‘हां बेटा, कोविड कुछ कम हो तो तुम लोगों को नानू के घर पहुंचा दूंगा,’ आदित्य परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला.

‘तुम हाथमुंह धो लो मैं, चाय गरम करती हूं.’ सुलेखा गैस पर चाय चढ़ाते हुए बोली.

चाय पी कर वह टहलते हुए नीचे बालकनी में आ गया. कालोनी में, कालोनी को खाली करवाने की बात को ले कर ही  चर्चा चल रही थी.

कुलविंदर सिंह बोले- ‘यहीं, वारे( महाराष्ट्र) के जंगलों को काट कर वहां मेट्रो बनाया गया. वहां सरकार कुछ नहीं कह रही है, लेकिन हमारी कालोनी इन्हें अनाधिकृत लग रही है. सब सरकार के चोंचले हैं. मेट्रो से कमाई है, तो वहां वह  पर्यावरण संरक्षण की बात नहीं करेगी. लेकिन  हमारे यहां निशावली के जंगलों  और पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है. हुंह, पता नहीं कैसा सौंदर्यीकरण कर रही है सरकार? फिर, ये हमारा राशनकार्ड, वोटरकार्ड, आधारकार्ड किसलिए बनाए गए हैं? केवल, वोट लेने के लिए. जब, कोई बस्ती-कालोनी बस रही होती है, बिल्डर उसे लोगों को बेच रहा होता है तब सरकारों की नजर इस पर  क्यों नहीं जाती? हम अपनी सालों की  मेहनत से बचाई पाईपाई जोड़ कर रखते हैं. अपने बालबच्चों के लिए. और, कोई कौर्पोरेट या बिल्ड़र हमें ठग कर ले कर चला जाता है. तब बाद में सरकार की नींद खुलती है. हमें सरकार कोई दूसरा घर कोई व्यवस्था कर के दे वरना हम यहां से हटने वाले नहीं हैं.’

घोष बाबू सिगरेट की राख चुटकी से झाड़ते हुए बोले- ‘अरे छोड़िए कुलविंदर सिंह. ये सारी चीजें सरकार और इन पूंजीपतियों की सांठगांठ से ही होती हैं. अगर अभी जांच करवा  ली जाए तो आप देखेंगे कि हमारे कई मिनिस्टर, एमपी, एमएलए इन के रिश्तेदार इस फर्जीवाड़े में पकड़े जाएंगे. सरकार की नाक  के नीचे इतना बड़ा कांड होता है. करोड़ों के कमीशन बंट जाते हैं और आप कहते हैं, कि सरकार को कुछ पता नहीं होता. हैंय, कोई मानेगा इस बात को. सब, सेटिंग से होता है . नहीं तो इस देश में एक आदमी फुटपाथ पर भीख मांगता है और दूसरा आदमी केवल तिकड़म भिड़ा कर ऐश करता है. यह आखिर कैसे होता है? सब जगह सेटिंग काम करती है.’

उस का नीचे बालकनी में मन नहीं  लगा, वह वापस अपने कमरे में आ गया और बिस्तर पर  आ कर पीठ सीधा करने लगा.

तुम से मैं कई बार कह चुकी हूं लेकिन तुम मेरी  कोई भी बात मानो तब न. अगर होटल लाइन का काम नहीं खुल रहा है तो कोई और कामधाम शुरू करो. समय से आदमी को सीख लेनी चाहिए. कोरोना का दो महीना बीतने को हो आया और सरकार होटलों को खोलने के बारे में कोई विचार नहीं कर रही है. आखिर, और लोग भी अपना बिजनैस चेंज कर रहे हैं, लेकिन, पता नहीं, तुम क्यों इस होटल से चिपके हुए हो?

कौन समझाए सुलेखा को कि बिजनैस चेंज करना इतना आसान नहीं होता है. एक बिजनैस को सेट करने में कईकई पीढ़ियां निकल जाती हैं. फिर, उस के  दादापरदादा यह काम कई पीढ़ियों से करते आ रहे थे. इधर नया बिजनैस शुरू करने के लिए नई पूंजी चाहिए. कहां से ले कर आएगा वह अब नई पूंजी? इधर, होटल पर बिजली का बकाया बिल बहुत चढ़ गया है. स्टाफ का तीन महीने का पुराना बकाया चढ़ा हुआ था ही.

रहीसही कसर इस कोरोना ने निकाल दी. कुल चारपांच महीनों का बकाया चढ़ गया होगा. अब तक दुकान खोलतेखोलते दुकान का मालिक सिर पर सवार हो जाएगा दुकान के भाड़े के लिए.

दूध वाले, राशन वाले को भी लौकडाउन खुलते ही पैसे देने होंगे. पिछले बीसबाइस सालों का संबंध है उन का, इसलिए वे कुछ कह नहीं पा रहे हैं. आखिर, वह करे तो क्या करे?

पिछले लौकडाउन में जब संध्या और सुषमा के स्कूल वालों ने   कैंपस केयर (एजुकेशन ऐप) को लौक कर दिया था तो मजबूरन उसे जा कर स्कूल की फीस भरनी पड़ी थी.

आखिर स्कूल वाले भी करें तो क्या करें? उन के भी अपने खर्चे हैं- बिल्डिंग का भाड़ा, स्टाफ का खर्चा और स्कूल के मेंटिनैंस का खर्चा. कोई भी हवा पी कर थोड़ी ही जी सकता है.

आखिर, कहां गलती हुई उस से. वह इस देश का नागरिक है. उसे वोट  देने का अधिकार है. वह सरकार को टैक्स भी देता है. सारी चीजें उस के पास थीं. पैनकार्ड, राशनकार्ड, वोटरकार्ड, आधारकार्ड, लेकिन, जिस घर में वह इधर बीसबाइस सालों से रहता आ रहा था वह घर ही अब उस का नहीं था. घर भी उस ने पैसे दे कर ही खरीदा था. उसे यह उस की कहानी नहीं लगती, बल्कि, उस के जैसे दस हजार लोगों की कहानी लगती है.  मखदूमपुर दस हजार की आबादी वाला कसबा था. ऐसा, शायद, दुनिया के सभी देशों में होता है. नकली पासपोर्ट, नकली वीजा, वैधअवैध नागरिकता. सभी जगह इस तरह के दस्तावेज पैसे के बल पर बन जाते हैं. सारे देशों में सारे मिडिल क्लास लोगों की एकजैसी परेशानी है. यह केवल उस की समस्या नहीं है, बल्कि उस के जैसे सैकड़ोंलाखोंकरोड़ों लोगों की समस्या है. बस, मुल्क और सियासतदां बदल जाते हैं. स्थितियां कमोबेश एकजैसी ही होती हैं. सब की एकजैसी लड़ाइयां, बस, लड़ने वाले लोग अलगअलग होते हैं. जमीन जमीन का फर्क है, लेकिन, सारी जगहों पर हालात एकजैसे ही  हैं.

आदित्य का सिर भारी होने लगा और  पता नहीं कब वह नींद की आगोश में चला गया.

इधर, वह सुलेखा और अपनी तीनों बेटियों को अपने ससुर के यहां  लखनऊ पहुंचा आया था. और, बहुत धीरे से इन हालात के बारे में उस ने सुलेखा को बताया था.

“अरे बाबूजी, अब इस रजनीगंधा के पौधे को छोड़ भी दीजिए. देखते नहीं, पत्तियां कैसी मुरझा कर टेढ़ी हो गईं हैं. अब नहीं लगेगा रजनीगंधा. लगता है, इस की जड़ें सूख गई हैं. बाजार जा कर नया रजनीगंधा लेते आइएगा, मैं लगा दूंगा.”

माली ने आ कर जब आवाज लगाई तब जा कर आदित्य की तंद्रा टूटी.

“ऊं, क्या चाचा, आप कुछ कह रहे थे?” आदित्य ने रजनीगंधा के ऊपर से नज़र हटाई.

करीबकरीब बीसपच्चीस  दिन  हो गए हैं उसे नए किराए के मकान में  आए. अगलबगल से एक लगाव जैसा भी अब हो गया है. शिवचरन, माली चाचा, कभीकभी उस के घर आ जाते हैं. इधरउधर की बातें करने लगते हैं, तो समय  का  जैसे पता ही नहीं चलता.

मखदूमपुर से लौटते हुए वह अपने अपार्टमैंट में से यह रजनीगंधा का पौधा कपड़े में लपेट कर अपने साथ ले आया था. आखिर, कोई तो निशानी उस अपार्टमैंट की होनी चाहिए जहां इतने साल निकाल दिए.

“मैं कह रहा था कि बाजार से एक नया रजनीगंधा का पौधा लेते आना. लगता है, इस की जड़ें सूख गई हैं. नहीं तो, पत्ते में हरियाली जरूर फूटती. देखते नहीं कि कैसे मुरझा गई  हैं पत्तियां. कुंभला कर पीली पड़ गई  हैं. लगता है, इन की जड़ें सूख गई हैं. बेकार में तुम  इन्हें पानी दे रहे हो.”

“हां चाचा, पीला तो मैं भी पड़ गया हूं. जड़ों से कटने के बाद आदमी भी सूख जाता है. अपनी जड़ों से कट जाने के बाद आदमी का भी कहीं कोई वजूद  बचता है क्या? बिना मकसद की जिंदगी हो जाती है. पानी इसलिए दे रहा हूं कि कहीं ये फिर से हरीभरी हो जाएं. एक उम्मीद है, अभी भी  जिंदा है…कहीं भीतर…”

और आदित्य  वहीं रजनीगंधा के पास बैठ कर फूटफूट कर रोने लगा. बहुत दिनों से जब्त की हुई ‘नदी’ अचानक से भरभराकर टूट गई थी और शिवचरन चाचा उजबकों की तरह आदित्य को घूरे जा रहे थे. उन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

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