दिनचर्या के विपरीत आज कालेज से घर लौटने में मुझे काफी देर हो गई थी. भूख, शारीरिक थकान और मानसिक परेशानी से ग्रस्त मैं जब घर पहुंची, तो मैं ने बैग एक ओर फेंका और बिस्तर पर औंधी गिर पड़ी. खाने को घर में कुछ था नहीं और न कुछ बनाने की इच्छा थी. 2 दिन के लिए घर से जाते हुए मां ने मुझे सख्त हिदायत दी थी कि मैं बाहर का कुछ भी न खाऊं. सोना चाहती थी, पर भूखे पेट होने की वजह से नींद ने भी पास फटकने से इनकार कर दिया था. अचानक दरवाजे पर घंटी की आवाज सुन कर बेमन से भृकुटियों को ताने, शिथिल कदमों से चल कर जब मैं ने दरवाजा खोला, तो सामने शीतल खड़ी थी.
‘‘दीदी, आप के लिए खाना लाई हूं.’’
शीतल के मुंह से यह सुन कर ऐसा लगा जैसे मेरे निर्जीव शरीर में किसी ने प्राण फूंक दिए हों. मैं ने हंस कर उस का स्वागत किया. वैसे भी शीतल का आना हमेशा मुझे ग्रीष्म ऋतु में शीतल बयार के आने जैसा सुकून देता था.
शीतल मेरी मौसी की बेटी थी. उस की और मेरी मांएं चचेरी बहनें थीं. एक ही शहर तो क्या, एक ही महल्ले में रहने के कारण हमारे संबंध घनिष्ठ थे. हम दोनों बहनों का रिश्ता सहेलियों जैसा था. हालांकि शीतल मुझ से 6 साल छोटी थी लेकिन हम दोनों की आपस में बहुत बनती थी. किसी भी विषय में, किसी जानकारी की आवश्यकता हो तो शीतल मुझ से बेझिझक पूछती थी. मैं शीतल के हर प्रश्न का उत्तर देती और उसे ऊंचनीच भी समझाती थी. शीतल बुद्धि और सुंदरता का अच्छाखासा संगम थी. मेरी शादी के वक्त शीतल ने कालेज में प्रवेश ले लिया था. शादी के बाद मुझे दिल्ली छोड़ कर मुंबई जाना था, जहां मेरी ससुराल थी. यह जान कर शीतल बेहद उदास हो गई थी. मैं ने उसे समझाया कि जब कभी मेरी याद आए तो फोन कर लेना मुझे और छुट्टियों में मुंबई आ जाना.
आखिर वह दिन भी आ गया जब अपनों को छोड़ कर नए रिश्तों के बंधन में बंध कर मैं मुंबई आ गई. मेरी शादी के बाद भी शीतल और मेरा स्नेह पूर्ववत बना रहा. सुरेश, मेरे पति भी उस से बेटी जैसा स्नेह करते थे.
समय पंख लगा कर उड़ने लगा और देखते ही देखते मैं राहुल और रिया 2 बच्चों की मां बन गई. रिया की जचगी के लिए जब मैं दिल्ली मां के पास गई थी तो शीतल ने एम.बी.ए. का इम्तहान दे दिया था और नतीजे का इंतजार कर रही थी. नतीजा आने से पहले ही उसे मुंबई में नौकरी मिल गई. पर मौसीजी और मौसाजी शीतल को अपने से दूर नहीं करना चाहते थे. किसी तरह मैं ने और सुरेश ने उन्हें मना ही लिया. शीतल की खुशी का ठिकाना न रहा.
शीतल को मुंबई आए 4 महीने हो गए थे. साथ रहने से हमारी अंतरंगता और बढ़ गई थी. औफिस से घर लौटते ही वह बच्चों के साथ बच्ची बन कर खेलने लगती थी. बच्चे उस पर जान छिड़कते थे. एक दिन उस ने बच्चों की तोतली आवाज में कही कहानियों को टेप किया, तो मैं ने उस से गाना गाने को कहा क्योंकि गाती वह अच्छा थी. मैं ने उस के 4 गाने टेप किए.
उन दिनों मौसीजी शीतल के लिए जीजान से लड़का ढूंढ़ने में लगी हुई थीं. इत्तफाक से उन्हें एक अच्छा रिश्ता मिल गया. वर पक्ष के लोग मुंबई में ही रहते थे, पर उन का बेटा पराग कोलकाता में कार्यरत था. मौसीजी, मौसाजी के साथ मुंबई आईं. लड़का और उस के परिवार वालों से मिलने के बाद दोनों बेहद खुश थे. उन की अनुभवी आंखों ने परख लिया था कि लड़के के बाह्यरूप को यदि ताक पर रख कर देखा जाए तो लड़का हर लिहाज से शीतल के लायक था.
शीतल को देखते ही पराग और उस के घर वालों ने उसे पसंद कर लिया था, पर शीतल के मन में दुविधा थी. उस ने अपने जेहन में एक राजकुमार की तसवीर को बसा रखा था, जैसा कि इस उम्र की लड़कियों के साथ अकसर होता है. लेकिन वास्तविकता तो सपनों की दुनिया से कोसों दूर होती है. मौसीजी ने शीतल को समझाया, ‘‘बेटी, लड़के के रंगरूप पर मत जाओ. लड़का गुणों की खान है. इतनी सारी डिग्रियों से विभूषित, इस छोटी सी उम्र में इतने ऊंचे पद पर कार्यरत है. व्यवहार भी उस का अति शालीन है. मेरा मन कहता है, तुम वहां खुश रहोगी.’’
मौसीजी के समझाने पर शीतल पराग से मिलने के लिए तैयार हो गई. पराग से मिलने के बाद शीतल ने भी शादी के लिए अपनी रजामंदी दे दी. इस तरह शीतल की शादी हो गई और वह पराग के साथ कोलकाता चली गई.
शादी के बाद शीतल जब पराग के साथ पहली बार अपने ससुराल मुंबई आई, तो पहले ही दिन दोनों हम से मिलने चले आए. शीतल बेहद खुश नजर आ रही थी. उस का खिलाखिला रूप व बातबात पर चहकना, उस के सफल दांपत्य जीवन की दास्तान को बयां कर रहा था. फिर भी औपचारिकतावश मैं ने जब शीतल से उस का कुशलक्षेम पूछा, तो उस ने चहकते हुए कहा, ‘‘दीदी, आप, मांपापा सब सही थे. पराग सचमुच गुणों की खान हैं. वे मुझे पलकों पर बैठा कर रखते हैं. ससुराल में भी मुझ से सब बहुत स्नेह करते हैं.’’ सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा.
इस के बाद शीतल की जिंदगी में कुछ बुरा घटा, तो कुछ अच्छा. बुरी घटना यह थी कि हृदयगति रुक जाने के कारण मौसाजी गुजर गए. खुशखबरी यह थी कि शीतल मां बनने वाली थी. रीतिरिवाज यह कह रहे थे कि पहली जचगी के लिए शीतल को मायके जाना चाहिए. पर पराग को शीतल से इतने दिनों का अलगाव मंजूर नहीं था, इसलिए उस ने मौसीजी को ही कोलकाता बुला लिया.
पराग और शीतल दोनों को बेटी की चाह थी. उस की डिलिवरी का दिन करीब आ गया था. हम यहां बेसब्री से खुशखबरी का इंतजार कर रहे थे. खबर आई कि उन की इच्छानुसार उन्हें बेटी पैदा हुई थी. पर बच्चे को जन्म देने के तुरंत बाद शीतल की हालत बिगड़ने लगी थी. डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद शीतल को बचाया नहीं जा सका. यह खबर सुन कर मेरे हाथपैर कांपने लगे. मेरी हालत इतनी खराब हो गई थी कि सुरेश मुझे समझासमझा कर थक गए.
‘‘उमा, ऐसी नाजुक घड़ी में तुम्हें संयम बरतना ही होगा. तुम इस कदर टूट जाओगी तो मौसीजी, पराग इन सब को कौन संभालेगा? मैं कोलकाता के टिकट ले कर आता हूं. तुम जाने की तैयारी करो. इस वक्त हमारा वहां रहना बेहद जरूरी है,’’ कह कर सुरेश चले गए.
शाम की फ्लाइट से हम कोलकाता पहुंचे. हम ने अपने आने की सूचना पराग को दे दी थी. एअरपोर्ट से बाहर आने पर हम ने देखा कि पराग बेहद उदास मुद्रा में चल कर हमारी ओर आ रहा था. घर पहुंचने पर हम ने देखा कि मौसीजी एक कोने में दुबकी बैठी थीं. मैं ने उन्हें जा कर गले से लगा लिया. पर इकलौती बेटी की मौत ने उन्हें पत्थर बना दिया था. न रो रही थीं, न ही बातें कर रही थीं. पराग की मां की हालत भी ठीक नहीं थी. उन्हें दमे का दौरा पड़ गया था. पालने में शीतल की बेटी सोई थी, दुनिया से बेखबर.