लेखक- डा. हरिश्चंद्र पाठक
मां के सामने मेरी कभी बोलने की हिम्मत न हुई. लेकिन मन ही मन खूब जवाब देती, ‘मां घी खाया ही तो है, फेंका तो नहीं? और इन दिनों पानी कुछ कम आया, इस वजह से पैंट रह गई. बाकी धुले हुए कपडे़ नहीं दिखे, इसी पैंट पर नजर पड़ी, मैं भैया का कमरा कब ठीक करती? सुबह खाना बनाने में रह जाती थी और शाम को स्कूल से लौट कर अपनी पढ़ाई करती थी.’ मैं यह सब खुद ही सोचती रहती और रोती रहती.
मैं हमेशा मां के मुंह से अपनी तारीफ सुनने को तरसती रही, लेकिन मेरी यह इच्छा कभी पूरी न हुई. वैसे मां मुझे ही नहीं डांटती थीं, वे बाबूजी को भी ऐसे ही फटकार लगतीं. एक बार बाबूजी अपना छाता कहीं भूल आए तो मां ने उन्हें ऐसे लताड़ा कि उन की बेचारगी देख कर उस दिन मैं रातभर तकिए में मुंह छिपा कर रोती रही.
मां की इस हिटलरशाही से तंग आ कर मैं यह भी सोचने लगती कि काश, मेरी शादी हो जाती तो रोजरोज की खिचपिच से और इस घुटन से तो छुट्टी मिलती.
दरअसल, जब इंसान को बचपन में प्यार नहीं मिलता है तो वह इस प्यार को अपने जीवनसाथी और बच्चों में तलाशने की कोशिश करता है. मेरे अंदर भी एक आशा थी कि शादी के बाद मेरा पति मेरे सारे दर्द बांट लेगा. मैं उस के सारे दुख ले लूंगी और एकदूसरे की तकलीफें दूर करते हुए हम अपना जीवन आसान कर लेंगे.
लेकिन होनी में तो कुछ और लिखा था. मेरा सारा सोचना व्यर्थ गया. मेरी शादी एक संपन्न घराने में हुई. व्यापारिक घराना था. ससुरजी की 2 फैक्टरियां थीं. घर में सभी सुखसुविधाएं थीं, नौकरचाकर थे और मां जैसी सास थीं जिन्हें पा कर मैं निहाल हो गई थी. जब वे प्यार से मुझे अपने गले लगातीं या मेरे गालों पर हाथ फेरतीं तो मेरी आंखें अपनी आदत के अनुसार झरझर बहने लगतीं.
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