सुबह के 9 बजे थे. दरवाजे की घंटी बजी  और लगातार बजती रही. दरवाजा खोलने के लिए मेघा बाथरूम से दौड़ी. घंटी बजाने वाले की अधीरता से ही वह समझ गई थी कि महेश के सिवा कोई और नहीं हो सकता. अभी तो औफिस के लिए निकले थे फिर वापस आए हैं. कुछ भूल गए होंगे. मेघा ने सपाट चेहरा लिए दरवाजा खोला.

‘‘कहां मर गई थी? इतनी देर लगा दी,’’ महेश गुस्से में चिल्लाए. साइड में होते हुए मेघा ने कठोर स्वर में कहा, ‘‘सुबह का वक्त है, मुझे नहाना धोना नहीं होता है क्या?’’

‘‘जबान लड़ा रही है सुबहसुबह?’’

मेघा ने एक बार फिर संयत रहने की कोशिश करते हुए पूछा, ‘‘आज क्या भूल गए?’’

‘‘मोबाइल फोन. तू यह भी याद नहीं दिला सकती मेरे जाते समय?’’

‘‘30 साल से याद दिला रही हूं, एक दिन तो खुद याद रखो.’’

‘‘तेरी ड्यूटी है मेरी हर चीज का ध्यान रखने की.’’

‘‘अपनी कोई ड्यूटी पूरी की है कभी?’’

‘‘सुबहसुबह बकवास कर रही है, तंग आ गया हूं मैं.’’

‘‘मैं भी.’’

‘‘तो चली जा मायके.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं? आप भी तंग हैं न, आप क्यों नहीं चले जाते? जहां चाहो चले जाओ, यह मेरा घर है और अब सच तो यह है कि मुझे आप की जरूरत ही नहीं है. मेरे बच्चे बड़े हो गए हैं. मैं अब उन के सहारे जी सकती हूं. आप को अपने काम करवाने के लिए मेरी जरूरत है, मुझे आप की नहीं. मैं अपने बच्चों के साथ बहुत खुश हूं.’’

मेघा की बात सुन कर महेश का मुंह खुला का खुला रह गया, कुछ बोल नहीं सके. मेघा कठोर शब्दों के बाण चलाती हुई सीधी तन कर खड़ी थी. महेश चुपचाप अपना मोबाइल फोन उठा कर चले गए. मेघा ठंडी सांस भरते हुए चौथी मंजिल पर स्थित अपने फ्लैट की बालकनी में खड़ी नीचे जाते हुए महेश को देखती रही. महेश कार स्टार्ट कर के औफिस चले गए. वह वहीं रखी कुरसी पर अनमनी सी बैठ गई और महेश को कही अपनी कठोर बातों पर गौर करने लगी. उसे अपनी बातों की कटुता पर जरा भी दुख नहीं हुआ.

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