‘हटाओ, ये सब बेबुनियादी विचार,’ प्रतिभा ने फुजूल शक पैदा किया मन में. प्रतिभा डाक्टरेट करेगी और मैं बेवजह उन की किताबों में, फाइलों में उलझी रहूंगी. वह रसोईघर की ओर लपकी. फ्रिज में जो मिला, वही खा कर विश्राम करने लगी. पर वहम ने सुखचैन छीन लिया था.
घंटी बजी, रामप्यारी आई. अनु चाय बनाने लगी, ‘‘रामप्यारी, चाय चलेगी?’’
‘‘हां, मैडम, लेकिन शक्कर ज्यादा और दो बूंद दूध.’’
‘‘कितनी काली और कड़क चाय पीती हो तुम.’’
‘‘सर तो बगैर शक्करदूध की चाय लेते थे.’’
‘‘अरे, पसंद अपनीअपनी.’’
‘‘मैडम, साहब के पुराने गरम कपड़े दे देना मेरे बूढ़े के लिए.’’
‘‘रामप्यारी, किस्मत ऊंची है तेरी.’’
‘‘हां, मैडम, मेरा आदमी शराब पीना, पिटाई करना जैसा कुछ नहीं करता परंतु हमारी जात में मर्द का यही काम है, कमाना कुछ भी नहीं, आवारागर्दी करना, शराब पीना और औरत की पिटाई करना. इतना ही काम रहता है. चाहे कितना भी बूढ़ा हो जाए, मेरे सिवा उसे कुछ सूझता नहीं. उसे बच्चे जैसा संभालना पड़ता है.’’
थोड़ा रुक कर वह आगे बोली, ‘‘मैडम, आदमीऔरत का रिश्ता शक्करपानी जैसा है. अपने आदमी को पहचानना जरूरी है,’’ चाय पीते हुए रामप्यारी का टेप चल रहा था.
अनपढ़ रामप्यारी का जंगली तत्त्वज्ञान सुन कर अनु को प्रतिभा का वक्तव्य याद आया. शक का कीड़ा दिमाग में फिर से घूमने लगा, एक सिरदर्द फिर से उभरा.
इतने में फिर से घंटी बजी. अनु ने दरवाजा खोल कर देखा, एक अजनबी युवती खड़ी थी. तीखे नैननक्श, सुडौल शरीर, आधुनिक पोशाक, आकर्षक चेहरा, हाथ में भारी पर्स.
‘‘मैं सोनाली. काम था आप से,’’ कुरसी पर बैठ कर वह बोली.
‘‘मुझ से? मैं आप को तो...’’