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कुछ सामाजिक रीतिरिवाजों को ध्यान में रख कर और कुछ दीप्ति के शौक को देख कर उस ने गृहप्रवेश के समय भोज की व्यवस्था की थी. सभी नजदीकी रिश्तेदारों को न्योता दिया था, हालांकि वह जानता था कि यह सब उस के बजट से बाहर जा रहा है.

पर मकान कौन सा रोजरोज बनता है. नांगल तो होना ही चाहिए. मकान बनाते समय इतने जीवजंतुओं की हत्या होती है तथा बहुत से पेड़पौधों को भी काटा जाता है, इसलिए इन सब के दोष निवारण हेतु हवन, पूजापाठ तथा इसी धरती पर बैठ कर ब्रह्मभोज तो बहुत जरूरी है. ये सभी बातें सुनतेसुनते ही उस ने उम्र पाई थी और इस कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार हो गई थी वरना वह तो इन सब ढकोसलों और फुजूलखर्ची में विश्वास नहीं

रखता था. समीर वैसे भी पूजापाठ और अंधविश्वास से दूर रहने वाला इंसान

था. पर दीप्ति के कहने पर उसे सब मानना पड़ा.

‘‘भैया...’’ प्रेमा ने आते ही समीर को गले से लगा लिया और समीर के भांजेभांजी पूजा और प्रतीक ने शरमा कर अपने मामा के पैर छुए. तब समीर ने कहा, ‘‘चलिए कुंवर साहब, अंदर चलिए. थोड़ा जलपान कर लीजिए. आप सफर से आए हैं, थोड़ा आराम कीजिए. फिर मैं आप को तसल्ली से पूरा

मकान दिखाऊंगा.’’

‘‘अरे भैया, हमें कोई आरामवाराम की जरूरत नहीं है. हम तो सब से पहले मकान देखेंगे. इसी के लिए तो इतनी दूर से आए हैं. जलपान तो हम रास्तेभर करते आए हैं,’’ कुंवर साहब ने सदा की तरह मजाकिया लहजे में कहा और समीर ने दीप्ति को आवाज दी, ‘‘दीप्ति, देखो प्रेमा, कुंवर साहब और बच्चे आ गए हैं. तुम्हें याद कर रहे हैं.’’

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