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एक दिन अनुज के एक मित्र ने अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने की बात कही जो हम दोनों को भी बहुत जंची पर जब हम ने मांजी के सामने इस बात की चर्चा की तो वे बिफर पड़ीं, “किस का बच्चा, कहां का बच्चा, किस का पाप होगा अनाथाश्रम का बच्चा… मेरे जीतेजी तो यह मुमकिन नहीं. पोते की चाह में तेरे पापा तो पहले ही चल बसे और अब मुझे यह किसी का पाप अपने घर में लाना कतई मंजूर नहीं…” कहतेकहते मांजी ने रोनापीटना शुरू कर दिया था.

कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें क्योंकि मेरा और अनुज का मानना था कि भले ही आज सेरोगेसी और आईवीएफ जैसे विकल्प बच्चे के जन्म के लिए मौजूद हैं पर किसी भी बेघर और बिना मातापिता के बच्चे को घर और मातापिता मिलना भी उस का बुनियादी हक है और जब हम यह काम करने में सक्षम हैं तो क्यों न करें.

इसी बीच एक दिन अनुज की बड़ी बहन ख्याति का आना हुआ. ख्याति दीदी और उन के पति एक कालेज में प्रोफैसर थे. दोनों ही बेहद सुलझे विचारधारा के हैं. उन के सुलझे व्यक्तित्व के कारण ही मेरी उन से बहुत पटती थी. मैं फोन पर भी उन से ऐडोप्शन के बारे में चर्चा कर चुकी थी और मां को मनाने का दायित्व भी उन्हें सौंप दिया था. दीदी और जीजा की लाख कोशिशों के बाद मांजी बच्चा गोद लेने को तैयार तो हो गईं पर शर्त थी कि अनाथाश्रम से गोद बेटा ही लेना होगा ताकि वंश चलता रहे.

एक दिन औपचारिक खानापूर्ति के बाद हम एक अनाथाश्रम से 1 माह के शोभित को घर ले आए थे. शोभित का आना मानों घर में खुशियों की सौगात आने जैसा था. मांजी के ताने अब हंसी के ठहाके और शोभित की प्यारीप्यारी हरकतों की नकल उतारने में बदल गए थे. ससुरजी के जाने के बाद अनेक बीमारियों से घिरी रहने वाली मम्मीजी की सारी बीमारियां अब उड़नछू हो गई थीं.

जीवन अपनी गति से चल रहा था और 12वीं के बाद शोभित का सिलैक्शन आईआईटी, कानपुर में हो गया और वहीं से उस का बैंगलुरु की एक मल्टीनैशनल कंपनी में प्लैसमेंट हो गया. हमारी तो खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था.

ऐसा लग रहा था मानों कुदरत ने हमें संसार का सारा सुख ही उपहार में दे दिया हो. अब हम तीनों ने शोभित की शादी के सपने देखने शुरू कर दिए थे पर वे तो सच होने से पहले ही टूट गए. हमारा जीवन, हमारा सबकुछ, हमारे बुढ़ापे का सहारा शोभित हमें बीच में ही छोड़ कर चला गया था. पर कहते हैं, किसी के जाने से क्या जीवन की गति रुकती है इसलिए हमारी जिंदगी भी बस चल ही रही थी… यह सब सोचतेसोचते कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला. अनुज चाय बना कर ले आए थे. दैनिक जीवन के कार्य निबटा कर हम दोनों ही अपने कर्तव्यस्थल की तरफ रवाना हो गए थे.

स्कूल पहुंची तो काम में ऐसे उलझी कि शाम का ही पता नहीं चला. रात को डिनर के समय अनुज ने अगले दिन अपनी मौसीजी के आने की सूचना दी. अनुज की एक ही मौसी हैं जो इतने वर्षों बाद हमारे यहां आ रही थीं इसलिए हमें भी बड़ा उत्साह था. मौसी के आने से मां को कंपनी मिल गई थी और वे बड़ी खुश भी थीं. आज संडे था इसलिए मैं ने मौसीजी की पसंद की आलू की कचौरियां बनाई थीं.

ब्रेकफास्ट करते समय डाइनिंग टेबल पर मौसीजी अपने इकलौते बेटे विनय के बारे में चर्चा करते हुए अनुज से बोलीं,”अनु, देख रूपएपैसे की तो तुझे कोई कमी है नहीं. रिटायरमैंट पर भी तुम दोनों को काफी धनराशी मिलेगी ही. तुम तो 2 ही जने हो. खर्चे ही क्या हैं. तू तो जानता ही है तेरा भाई विनय कब से अपना धंधा शुरू करना चाह रहा है पर हमेशा पैसों की कमी पड़ जाती है. इस बार मैं आ रही थी तो उस ने तुम से बात करने को कहा था. देख लो बेटा, हो सके तो अपने भाई की कुछ मदद कर देना.”

अनुज ऐसे अवसरों पर आमतौर पर चुप ही रहते हैं ताकि बड़ों का मान बना रहे. हमारी चुप्पी से शायद मौसीजी समझ गई थीं कि हम कोई मदद नहीं कर पाएंगे. हां, दूसरे दिन एकांत पाते ही मांजी जरूर बोलीं,
‘’देख लो तुम लोग… हो सके तो कुछ कर दो. अपना तो कोई है नहीं आगेपीछे, हारीबीमारी, आफत मुसीबत में ये ही लोग काम आएंगे.”

‘’नहीं मां, यह संभव नहीं है. अपनी खूनपसीने की कमाई हम यों ही जाया नहीं करेंगे. हम ने भी मेहनत की है, वह भी मेहनत करे…आज की दुनिया में मेहनत से क्या संभव नहीं है. आगेपीछे कोई नहीं है का क्या मतलब है? हम 2 तो हैं और बुढ़ापे में किसी पर आश्रित भी नहीं रहना चाहते. बुढ़ापे में इंसान के 2 ही सहारे होते हैं उत्तम स्वास्थ्य और उस का अपना पैसा,” स्पष्टवादी अनुज चाह कर भी इस बार खुद को नहीं रोक पाए थे.

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