Hindi Online Story : : सर्दी की गुनगुनी धूप में बैठ कर चाय पीते हुए पेपर पढ़ना अनुराधा को बेहद पसंद है. पति अभिषेक के साथ सुबह की सैर के बाद वह बस चाय पी ही रही थीं कि उन का फोन बज उठा. उन्होंने फोन उठा कर देखा तो स्क्रीन पर उन की अभिन्न सखी अनीता का फोन था. अनीता की आवाज आई, ‘‘अनु, आज पिताजी के श्राद्ध के उपलक्ष्य में ब्राह्मण भोज रखा है जिस में तु?ो और अभिषेकजी को आना है.’’
‘‘सौरी, यार अनीता, मेरे यहां आज कुछ गैस्ट आ रहे हैं जिस के कारण मेरा आना तो संभव नहीं हो पाएगा. आज तू अपना प्रोग्राम कर ले, फिर किसी दिन मिलते हैं,’’ कह कर अनुराधा ने फोन रख दिया.
‘‘अरे, कौन आ रहा है, तुम ने कुछ बताया ही नहीं, किस के आने का प्रोग्राम है?’’ पति अभिषेक ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा तो वे बोलीं, ‘‘आ कोई नहीं रहा है पर तुम तो जानते हो, मुझे इस तरह के श्राद्ध वगैरह में न तो कोई विश्वास है और न ही इन में जाना पसंद है, इसीलिए टाल दिया.’’
‘‘तुम्हारी यह अजीब सी सोच मुझे तो न कभी समझ आई है और न आएगी. हम ब्राह्मण हैं और मृत आत्मा की शांति के लिए यह एक शास्त्रसम्मत कार्य है जो हरेक को करना चाहिए और इसीलिए लोग इतने मन से हमें बुलाते हैं. तुम शायद जानती नहीं हो कि श्राद्ध की परंपरा यों ही नहीं बनाई गई है, कितना वर्णन है इन सभी का हमारे शास्त्रों में. पर तुम्हें कौन समझगए.’’
‘‘देखिए, आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि हम दोनों के बीच में कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर हम दोनों एकमत नहीं हैं. सो, बेहतर है कि इन पर बारबार बहस न की जाए. सुबहसुबह क्यों बहस करें, आप अपना काम कीजिए और मैं अपना.’’ यह कह कर अनुराधा उठ गईं.
2 बच्चों के मातापिता अनुराधा और अभिषेक मध्य आयुवर्ग के पतिपत्नी हैं. दोनों ही पिछले 40 वर्षों से सफल वैवाहिक जीवनयापन कर रहे हैं. अनुराधा जहां आधुनिक विचारों से ओतप्रोत अंधविश्वास और रूढि़यों की सख्त विरोधी हैं वहीं अभिषेक घोर परंपरावादी, रूढि़वादी और अंधविश्वासी हैं. 2 बच्चे हैं जिन में बेटी अलीशा विवाह कर के यूएस में सैटल्ड है जबकि बेटा कबीर यानी बिट्टू का कुछ महीनों पहले ही विवाह हुआ है.
बहू काव्या और बेटा कबीर दोनों ही एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करते हैं और इस समय वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. सो, उज्जैन में अपने मातापिता के साथ ही हैं. छोटीमोटी नोकझोंक और विचारों के मतभेद को छोड़ दिया जाए तो अनुराधा और अभिषेक का वैवाहिक जीवन इतने वर्षों से सफलतापूर्वक चल रहा है. नाश्ते की टेबल पर एक बार फिर दोनों की विचारधारा तब टकरा गई जब अभिषेक अनुराधा की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘‘परसों अम्मा का श्राद्ध है, वह तो याद है न या वह भी भूल गई हो और तुम्हारी इस नई सोचवोच से मु?ो कोई लेनादेना नहीं है. मैं हमेशा की तरह उसी पुरानी रीत से ही अम्मा का श्राद्ध करूंगा जैसे अम्मा बाबूजी का करती आई थीं और अम्मा का तो इस बार पहला श्राद्ध है तो थोड़ा ढंग से करने का इंतजाम कर लेना.’’
‘‘देखोजी, अम्मा जब थीं तब भी मैं हमेशा श्राद्ध और पितर पक्ष जैसे अंधविश्वासों का खूब विरोध किया करती थी और आज भी मैं अपनी विचारधारा पर कायम हूं. आप भी जानते हैं कि अम्मा की जितनी सेवा मैं कर सकती थी, अंत समय तक उन की जीजान से सेवा की थी. अम्मा पुराने जमाने की थीं और उन की अपनी मान्यताएं थीं. सो, उन के सामने मैं ने कभी भी अपनी आवाज नहीं उठाई थी. अब उन के जाने के बाद मैं अपने घर में इस तरह की थोथी सोच को बढ़ावा देने वाली तो नहीं हूं. इसलिए मैं अपने घर में तो श्राद्ध नहीं करूंगी,’’ कह कर अनुराधा अपने रूम में चली गईं.
‘‘तो तुम परसों अम्मा के श्राद्ध वाले दिन क्या करोगी?’’ अभिषेक अनुराधा के पीछेपीछे कमरे में आ गए.
‘‘कुछ नहीं, जैसे रोज काम करते हैं वैसे ही करेंगे.’’
‘‘क्या तुम जानतीं नहीं कि हमारे धर्मग्रंथों में श्राद्ध का कितना वर्णन है और तुम हो कि श्राद्ध करना ही नहीं चाहतीं,’’ अभिषेक ने यह कहा तो अनुराधा खुद को रोक नहीं पाईं और बोलीं, ‘‘क्या धर्मग्रंथ और शास्त्र आप ने पढ़े हैं? नहीं न. आप को सिर्फ वह पता है जो आप को आप के तथाकथित पंडित ने बताया है. आप हर बार पितर पक्ष में पंडितों को बुला कर उन्हें भोजन कराते थे और न जाने कितने उपहारों से भी उन्हें नवाजते थे और वे भरे पेट पंडित ढंग से न खाते थे और न ढंग से बात करते थे क्योंकि हरकोई आप की तरह ही उन्हें भोजन खिला कर अपने पुरखों को तृप्त कर उन का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है.
‘‘ये परंपराएं, ये भांतिभांति के पक्ष, फलां दिन ये काम करने से वह पुण्य प्राप्त होगा, अमुक दिन ये कपड़ा पहनना चाहिए, बृहस्पतिवार को बाल मत काटो, शनिवार को लोहा मत खरीदो जैसे अनेक अंधविश्वास, दरअसल, पंडितों और पुजारियों का फैलाया मायाजाल है जिस का फायदा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष केवल इन तथाकथित बाबाओं को ही होता है, किसी और को नहीं.
‘‘आप ही बताइए आज जबकि मनुष्य चांद पर बसने की तरफ बढ़ रहा है तब भी हम उन्हीं दकियानूसी परंपराओं का ढोल पीटते रहेंगे तो हो गया काम. पहले तो यहां धरती पर पंडितों को खाना खिला कर केवल पंडितों का ही भला होना है, हमारे पुरखों या हमारा नहीं, यह बात आप सम?ा लीजिए. अपनेआप को इन पंडितों के जाल से मुक्त करिए और अपनी सोच को थोड़ा उन्नत बनाइए. आप खुद ही सोचिए कि क्या ये पंडित लोग हमारी अम्माजी का प्रतिरूप हैं, हम इन्हें जो खिलाएंगे, दान देंगे क्या वह अम्माजी, बाऊजी तक पहुंचेगा? अरे मिश्राजी, ये लोग भी हमारेआप की तरह ही एक साधारण से इंसान हैं, कोई भगवान के दूत नहीं. हां, आप जैसे अंधविश्वासियों ने जरूर इन के भाव उठा रखे हैं जिस से ये सिर चढ़ कर बोलते हैं और समाज में कुकुरमुत्तों के छत्तों की तरह हर दिन नए पनप रहे हैं.’’
अनुराधा ने यह सब बहुत विनम्रता से कहा क्योंकि वे जानतीं थीं कि सदियों से अंधविश्वास और रूढि़यों की जमी परतों को टूटने में वक्त तो लगेगा लेकिन टूटेंगी अवश्य.
‘‘मैं ने बचपन से यही देखा है हमारे घर में. तुम तो स्वयं साक्षी हो कि अम्मा, बाऊजी कितने धर्मकर्म से ये सब किया करते थे. फिर भी ये नईनई रीत पता नहीं कहां से ले आती हो?’’ अभिषेक ने फिर अपनी बात को रखते हुए कहा.
‘‘अभिषेक यही तो समस्या है हम सब की कि जो बचपन से देखते हैं वही बड़े हो कर अपने घर में भी दोहराना चाहते हैं जबकि बड़े हो कर हमें अपनी शिक्षा का उपयोग करते हुए भावनाओं से नहीं बल्कि तर्क और दिमाग से काम लेना चाहिए. जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं तो शादी के बाद से ले कर अम्माजी के जाने तक हर दिन भोग ही रही थी. मेरे मातापिता ने हम सभी बच्चों को केवल कर्म की पूजा करनी सिखाई थी पर तुम्हारे यहां तो हर दिन कथा, मंदिर और बाबा जैसे पाखंड होते
रहते थे.
‘‘तुम्हें याद होगा, शुरू में मैं ने विरोध करने की कोशिश भी की थी पर जब सब मेरी ही परवरिश पर दोष देने लगे तो मैं ने बड़ों के आगे चुप रहना ही ठीक सम?ा पर अब अम्माजी जा चुकी हैं और अब मैं अपने बच्चों को अंधविश्वास व रूढि़यों से भरे थोथे संस्कार नहीं देना चाहती. आप पढ़ेलिखे हैं, इंजीनियर हैं, अंधविश्वास, रूढि़यों आदि से ऊपर उठ कर केवल दिमाग और तर्क से सोचिए कि इस से किसे लाभ है? सो, आप को मेरी सारी बातें सम?ा आ जाएंगी.’’
पर अभिषेक के अंधविश्वास अपनी जड़ों से हिलने को तैयार न थे. सो, वे फिर कुछ नाराजगी से बोले, ‘‘ये दिन पितरों के दिन होते हैं और पितरों को श्रद्धांजलि देने के लिए ही ब्राह्मणभोज कराया जाता है. उन्हें याद किया जाता है. ऐसी मान्यता है कि वे सालभर इन दिनों का इंतजार करते हैं.’’
‘‘अभिषेक?, हमारे मातापिता को हम भूलते ही कब हैं. क्या तुम कभी अम्मा, बाऊजी को भूल पाए या मैं भूल पाई अपनी मां, पापा को. वे हमें जिंदगी देते हैं. उन्हें कोई कैसे भूल सकता है. वे तो हमारे दुख में सुख में हर पल हमारे साथ होते हैं. लोग जीतेजी तो अपने मांबाप को दुत्कारते रहते हैं और उन के जाने के बाद उन्हें याद करने का ढोंग करते हैं. ये जो सुबह अनीता का फोन आया था मु?ो निमंत्रण देने के लिए, तुम्हें याद होगा कि कैसे अपने ससुर को एक साल तक एक कमरे में डाल कर रखा था. उन का इलाज तक ठीक से नहीं करवाया था. उन की पैंशन का भी सारा पैसा हड़प कर गए थे ये लोग और अब उन के नाम पर श्राद्ध का ढोंग करने का क्या औचित्य. तुम जानते हो, ये लोग श्राद्ध सिर्फ अपने भले के लिए करते हैं.’’
‘‘क्यों इस में उन का क्या भला, श्राद्ध तो पितरों को तृप्त करने के लिए किया जाता है.’’
‘‘नहीं अभिषेक, ये लोग चूंकि उन के जीतेजी उन का ध्यान नहीं रखते, इसलिए इन के मन में डर समाया रहता है कि वे कहीं इन का कुछ बुरा न कर दें. इसीलिए श्राद्ध में उन की पसंद का खाना बनवाते हैं और उन के नाम पर ब्राह्मणभोज कराते हैं व दानपुण्य करते हैं. खैर, अब इस मुद्दे पर हम कोई भी बात नहीं करेंगे. चलो, अब सब मिल कर नाश्ता करो, चंदा ने गरमागरम कचौरियां बनाई हैं,’’ अनुराधा ने पति अभिषेक के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.
‘‘अरे वाह, कचौरियां और हरे धनिए की चटनी, मजा आ गया, मां,’’ कहते हुए कबीर और काव्या नाश्ता करने लगे. अभिषेक ने बड़े ही बेमन से नाश्ता किया. उन्हें कुछ समझ नहीं आ पा रहा था पर अनुराधा के ठोस तर्कों के आगे क्या बोलें, यह भी सम?ा नहीं आ रहा था. सो, चुपचाप उठ कर वे अपने कमरे में चले गए.
कबीर और काव्या भी अपने कमरे में चले गए तो अनुराधा दोपहर के खाने के लिए चंदा को कुछ निर्देश दे कर ड्राइंगरूम के काउच पर ही कुछ देर आराम करने लगी. जैसे ही लेट कर उन्होंने आंखें बंद कीं, उन के सामने कई वर्षों पहले की घटनाएं चलचित्र की भांति घूमने लगीं. जब अभिषेक और उन का विवाह हुआ था तो अभिषेक की ट्रेनिंग चल रही थी. विवाह के लिए बड़ी मुश्किल से एक माह का अवकाश मिला था और वह भी कब खत्म हो गया, अभिषेक को पता ही न चला. उन दिनों आजकल की भांति हनीमून जैसा कोई प्रावधान तो था नहीं, सो एकसाथ कहीं घूमने चले जाते पर अभी तो वे दोनों एकदूसरे से भलीभांति परिचित भी नहीं हो पाए थे कि अभिषेक के जाने का दिन भी आ गया.
चूंकि अभिषेक की ट्रेनिंग दिल्ली में थी और अभी नईनई नौकरी थी, परिवार को पोस्ंिटग स्थल पर ले जाएंगे, यह सोच कर अभी उसे सासससुर के पास उज्जैन में ही रहना होगा. चूंकि दिल्ली से उज्जैन की सीधी ट्रेन थी, सो अभिषेक माह में एक बार उज्जैन आ जाता था. वे शनिवार सुबह आते और रविवार की रात को चले जाते थे. इस तरह दोनों को 2 दिन साथ रहने को मिल जाते थे. सासससुर बहुत अच्छे और धार्मिक प्रवृत्ति के थे. वह खुद पढ़नेलिखने की शौकीन थी. सो पूरा महीना तो किसी तरह निकल जाता था पर अभिषेक के दिल्ली से आने वाले दिन तो वह प्रेम रस में डूबी विरहन की भांति तड़प उठती थी. उस का मन करता था कि बस पति की बांहों में ही आबद्ध हो कर अपने कमरे में ही पूरे दिन बनी रहे. वहीं अभिषेक का भी यही हाल रहता था.
आखिर कौन पति अपनी नईनवेली पत्नी के प्रेमरस में खुद को नहीं डुबोना चाहेगा. लेकिन संयुक्त परिवार की कुछ मर्यादाएं दोनों को मजबूर कर देती थीं. पति के प्रेमरस में डूबे वे 2 दिन कैसे निकल जाते, उसे पता ही न चलता था. रविवार की शाम को अभिषेक के जाने के बाद फिर से अगले महीने के संडे का वह इंतजार करने लगती. दिन इसी तरह बीत रहे थे.
पितर पक्ष प्रारंभ हो चुके थे. सो, एक दिन सासुमां बोलीं, ‘बेटा, परसों अपने घर में श्राद्ध है. कुछ लोगों का खाना करेंगे.’
‘ठीक है मां, आप चिंता न करो, मैं सब संभाल लूंगी.’ उस ने कह तो दिया परंतु मन में विचार आया कि परसों दिन क्या है, जब हिसाब लगाया तो वह उदास हो गई क्योंकि श्राद्ध वाले दिन तो शनिवार था. उस का मन बुरी तरह बु?ा गया. खैर, सुबहसुबह ही ब्राह्मणों को खाना खिला देंगे, फिर तो पूरे 2 दिन अपने ही हैं, यह सोच कर उस ने अपने मन को तसल्ली दी. शनिवार को सुबह से ही घर आने वाले मेहमानों के लिए भोजन की तैयारी की जाने लगी. अभिषेक को चायनाश्ता दे वह भी सास के साथ काम में लग गई. सासससुर ने ब्राह्मणभोज के नाम पर कुछ पंडितों और अपने परिचित ब्राह्मण परिवारों को बुला रखा था. उस दिन घर में लगभग 20-30 लोगों का खाना बना.
शाम तक तो उस की कमर, पैर और शरीर सभी जवाब देने लगे थे. रात में जब बिस्तर पर लेटी तो अभिषेक को ही तरस आ गया और उसे प्यार से सहलाते हुए वे बोले, ‘तुम बहुत थक गई हो, सो जाओ. न चाहते हुए भी लेटते ही उसे नींद आ गई. सुबह जल्दी ही उठ कर तैयार हो गई ताकि अभिषेक के साथ शाम तक का कुछ समय बिता सके क्योंकि उसी दिन अभिषेक की रात को दिल्ली जाने की ट्रेन थी.
आखिर, वे दोनों नवविवाहित और हाड़मांस के इंसान थे जिन में भावनाएं भी ज्वारभाटे की भांति उफान लेती हैं. अभी सुबह का नाश्ता सब को खिला कर निबटी ही थी कि सासुमां की बहन अपने बेटे, बहू, बच्चों और पति के साथ आ धमकीं. इतने मेहमानों को एकसाथ आया देख उस का मन किया कि जारजार रो पड़े. वे उज्जैन में अपने सासससुर का तर्पण करने आए थे. मौसाजी आते ही बोले, ‘देख भई आराधना, तेरे कहने पर कि तू ने पंडितजी से बात कर ली है, हम आ गए हैं. अब बता कितनी देर में चलना है, बस तू किसी अच्छे पंडित से मेरे पूर्वजों की पूजा और तर्पण करवा दे ताकि अपने बेटे होने का फर्ज पूरा कर सकूं.’
‘हांहां जीजाजी, सब बात कर ली है. बस, आप चायनाश्ता कर लो, फिर चलते हैं. पंडितजी वहीं रामघाट पर मिलेंगे,’ सासुमां ने कहा.
फिर वे अनुराधा की तरफ मुखातिब हो कर बोलीं, ‘बहू, मैं तो दीदी के साथ जा रही हूं पंडितजी के पास. हां, खाना तुम बना लेना और अभिषेक को पैक कर के दे देना. हम शायद न आ पाएं. यह कह कर सासुमां घर का पूरा भार उस पर छोड़ कर चली गईं. रह गई वह बेचारी और घर का पूरा दारोमदार. उसे याद है, उस दिन अपनी बेबसी पर खीच कर वह कह उठी थी, ‘यह श्राद्ध पक्ष तो मेरी जिंदगी का ही श्राद्ध कर देगा.’
घर का काम निबटातेनिबटाते ही अभिषेक की ट्रेन का समय हो गया था. बेबसी में आंसुओं से भरी आंखों से उस ने उस दिन अभिषेक को विदा किया था. दो घड़ी के लिए भी पति का सामीप्य न पा कर जल बिन मछली की भांति तड़पती ही रह गई थी वह और तभी उस ने अपने मन में यह प्रण कर लिया था कि आज तो वह बेबस है पर जब उस की अपनी गृहस्थी और अपना परिवार होगा, वह अपने घर में इन अंधविश्वास से भरे खोखले और दकियानूसी कर्मकांडों को लेशमात्र भी जगह न देगी.
‘‘मैडम, खाना बन गया है. डाइनिंग टेबल पर लगा भी दिया है. अब मैं जा रही हूं,’’ चंदा ने जब उस के पास आ कर कहा तो वह मानो नींद से जागी. उसे लगा कि जैसे वह कोई सपना देख रही हो.
‘‘हांहां, तू जा,’’ कह कर अनुराधा फिर से लेट गईं. अचानक उन्हें मौसी याद आ गईं जिन के घर सासुमां विवाह के तुरंत बाद ले कर गई थीं. मौसी का अच्छाखासा खातापीता और शिवपुरी का जानामाना परिवार था. मौसाजी परिवार के इकलौते बेटे थे. मौसाजी की मां यानी मौसीजी की सास अभी जीवित थीं परंतु पिताजी का देहांत हो चुका था. उसे याद है कि मौसीजी अपनी बीमार सास को छोड़ कर कईकई घंटों के लिए चली जाती थीं.
मौसी और मौसाजी अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त थे कि अपनी मां के पास दो घड़ी बैठने तक की फुरसत नहीं थी. एक दिन जब उन्होंने कुछ चटपटा खाने की इच्छा जताई तो मौसीजी कहने लगीं, ‘इस बुढि़या ने नाक में दम कर के रखा है, न कहीं जा सकते हैं न कुछ कर सकते हैं. इस उम्र में भी जीभ तो बिलकुल बच्चों की तरह चटखारे लेती है. तुम्हें पता है, इन के कारण हम दोनों तो एकसाथ कहीं जा ही नहीं सकते. जो बना है वही खा लो,’ कह कर मौसी ने पतली सी खिचड़ी की प्लेट उन के सामने सरका दी थी. उन्होंने चुपचाप बिना कुछ बोले खाना खा लिया. उन्हें घर के एक कमरे में डाल रखा था मौसीजी ने.
पूरे घर में एसी लगे थे परंतु उन के कमरे में मात्र पंखा था. आश्चर्य उन्हीं सास का श्राद्ध करने आज मौसीजी शिवपुरी से उज्जैन तक आ गई थीं. वे सोचने लगीं, जीतेजी तो मांबाप को लोग दुख, तकलीफ और मानसिक कष्ट देते हैं, जबकि उन के मरने के बाद श्राद्ध कर के उन्हें पूजने और खाना खिलाने का ढोंग करते हैं. वृद्धावस्था में मातापिता को रुपएपैसे की नहीं, बस, अपने बच्चों से प्यार और सम्मान के दो बोल और अच्छे व्यवहार की आस रहती है. यदि वे मिल जाते हैं तो उन का सारा जीवन ही सफल हो जाता है.
जिन बच्चों को पालनेपोसने में मातापिता अपनी सारी जिंदगी और जमापूंजी लगा देते हैं उन्हीं बच्चों को अकसर अपना घरपरिवार हो जाने पर मातापिता भार लगने लगते हैं. उन के घर तो क्या, दिलों तक में उन के लिए जगह नहीं रहती. ऐसे में अपने प्रति संतान के कठोर व्यवहार को देख कर तो वे इसी गम में डूबे रहते हैं कि हमारे संस्कारों में क्या कमी रह गई जो बच्चे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं. उन के जीतेजी यदि बच्चे उन की सेवा करें तो कम से कम वे शांतिपूर्वक मर तो सकें. इस संसार से विदा होने के बाद क्या वे देखने आते हैं कि आप उन के नाम पर क्याक्या कर रहे हो. यह सोचतेसोचते अनुराधा की आंख लग गई. वे उठीं तो सिर भारी था. सो, सब से पहले उन्होंने किचन में जा कर चाय बनाई और गैलरी में आ कर बैठ गईं. मन ही मन विचारों की तंद्रा अभी समाप्त ही नहीं हुई थी.
उस ने तो कबीर के पैदा होने से पहले ही सोच लिया था कि वह कभी इन अंधविश्वासों को अपने घर में नहीं पनपने देगी. उसे तो श्राद्ध, पितर पक्ष, बाबा, जैसे किसी में भी विश्वास नहीं है. मेरे लिए तो मेरा कर्म ही पूजा है. वह तो बस अपने बच्चों से कहेगी कि इस संसार से उस के जाने के बाद उस के नाम पर तेरहवीं, बरसी, गरुण पुराण और श्राद्ध जैसा कोई भी अंधविश्वासपूर्ण क्रियाकर्म न किया जाए. बस, जीतेजी वे उसे प्यार और इज्जत देते रहें ताकि वह शांति से इस संसार से जा सके. यह सब सोचतेसोचते कब रात हो गई, उसे पता ही न चला. जब दरवाजे की घंटी की आवाज हुई तो उन के विचारों की शृंखला भंग हुई और अपने निर्णय पर मन ही मन खुश होती हुईं वे चल दीं दरवाजा खोलने क्योंकि आज उन्होंने अपने घर से रूढि़यों और अंधविश्वास का सच्चा श्राद्ध जो कर दिया था. Hindi Online Story