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सारी रात सुरभि सो नहीं पाई थी. बर्थ पर लेटेलेटे ट्रेन के साथ भागते अंधकार को कभीकभी निहारने लगती. इतने समय बाद अपने पति प्रारूप से मिलने की सुखद कल्पना से उस के शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी. गाड़ी ठीक सुबह 5 बजे स्टेशन पर आ गई थी. कुली बुलवा कर उस ने सामान उतरवाया और उनींदे मृदुल को गोद में ले कर स्टेशन पर उतर कर अपने पति प्रारूप को ढूंढ़ने लगी. चिट्ठी तो समय पर डाल दी थी उस ने, फिर क्यों नहीं आए? कहीं डाक विभाग की लाखों चिट्ठियों में उस की चिट्ठी खो तो नहीं गई? वरना प्रारूप अवश्य आते.

हवा में काफी ठंडक थी. सर्दी अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी. उस शीतल बयार में भी पसीने के कुछ कण उस के माथे पर उभर आए थे. नया शहर, नए लोग, अनजान जगह. ऐसे में अपना घर ढूंढ़ भी पाएगी या नहीं. उस ने पर्स खोल कर पते की डायरी निकाली और पास खड़े रिकशे वाले को कस्तूरबा गांधी मार्ग चलने का निर्देश दे कर पहले रिकशे में सामान रखवाया और फिर गोद में मृदुल को ले कर खुद भी बैठ गई. कैसी अजीब सवारी है यह रिकशा भी? उस ने सोचा, हर समय गिरने और फिसलने का डर बना रहता है. 2 लोग भी कितनी मुश्किल से बैठ पाते हैं. दिल्ली में होती तो अपनी गाड़ी को दौड़ाती हुई अब तक कई किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी होती.

शहर की सुनसान सड़कें लांघता हुआ रिकशा एक बंगले के पास आ कर रुक गया था. बाहर नेमप्लेट पर अधिशासी अभियंता प्रारूप कुमार का नाम पढ़ कर उसे अपने गंतव्य तक पहुंचने की सूचना मिल गई थी. चारों ओर से भांतिभांति के पेड़ों से घिरे छोटे से बंगले तक पहुंचने के लिए उस ने रिकशे वाले को बाहर गेट पर ही पैसे दे कर विदा किया और हाथ में बैग पकड़ कर बंगले के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी. पहले का समय होता तो सीढि़यां लांघती हुई, संभवतया धड़धड़ाती हुई अब तक घर के अंदर पहुंच चुकी होती, पर इस समय एक अव्यक्त संकोच उस के पांव जकड़ रहा था. घर तो उस का ही है. प्रारूप के घर को वह अपना ही तो कहेगी, लेकिन पिछले कई दिनों से उन के बीच एक दीवार सी खिंच गई थी, जिसे बींघने का प्रयत्न दोनों ही नहीं कर पा रहे थे. अब तो काफी दिनों से न तो कोई पत्रव्यवहार उन दोनों के बीच था और न ही बोलचाल. उस ने अपने आगमन की सूचना भी मृदुल से करवाई थी. वह बेला, चमेली की झाडि़यों के बीच काफी देर तक यों ही सूटकेस थामे खड़ी रही.

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