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आज भोर की उजास ने कमरे में प्रवेश नहीं किया था. खिडकी से परदे को सरका कर सूरज की किरणों को कमरे में आमंत्रित करने वाली अंकिता अब इस घर में नहीं थी. पलंग के बगल के गोल टेबल पर आज चाय का प्याला भी नहीं था. आज से नया जीवन शुरू हो रहा था, मेरा भी उस का भी. 7 बज गए थे. सुबह 6 बजे उठ कर मौर्निंग वौक जाने का क्रम भी आज टूट गया था.

पिछले 15 सालों से किसी सीखीसिखाई विधि से मेरे आगेपीछे घूमा करती थी अंकिता. कभी कोई संबोधन नहीं था उस के मुंह में मेरे लिए. न ही मैं कभी उसे कोई संबोधन दे पाया. एक विचित्र रिश्ता जोड़ गई थी सुमेधा.

अंकिता के लिए सुमेधा मां थी। इसी संबोधन से उसे पुकारा करती थी वह। रोहित भैया था और मैं कुछ भी नहीं. मेरे लिए अंकिता सदैव पराई ही रही. मैं बेहद कठोर था इस बात को ले कर कि मेरे निर्णय का सदैव पालन हो. सुमेधा ने अपने जीवनकाल में कभी ऐसा कोई काम नहीं किया था जो मेरे चेहरे के भाव बदल दे. बेटे रोहित को एक साहसी और जिम्मेदार इंसान बनाया उस ने. पिछले साल ही रोहित कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स के लिए लंदन गया है. कोर्स पूरा होने के बाद वहीं का स्थायी निवासी होने की उस की इच्छा है.

रोहित के इस निर्णय पर न मुझे न सुमेधा को कोई आपत्ति थी. बच्चे को अपने निर्णय और आकांक्षा के अनुरूप जीने देना है, इस का निर्णय हम ने काफी पहले ही कर लिया था। मेरी हर बात को शांति से स्वीकार करने वाली सुमेधा ने जीवन में एक ही बार मेरा विरोध किया था अंकिता के लिए. 16 साल पहले अपनी बीमार सहेली को देखने गई सुमेधा जब अस्पताल से लौटी तो इस 7 साला बच्ची का हाथ थामे घर आई थी, यह कहते हुए कि इस का कोई नहीं। उस ने निर्णय सुनाया था कि वह यहीं रहेगी... इसी घर में.

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