लेखिका-डा. उर्मिला सिन्हा
हाथों में ब्रश पकड़ आरती अपने हुनर को निखारने में लगी थी जबकि उस की बड़ीछोटी बहनें बिगाड़ने में. पर मां ही थीं, जो उसे सम?ातीं तो वह फिर से बनाती. शादी के बाद पति का साथ मिला तो उस को इसी हुनर से नई पहचान मिली. क्या वह बड़ीछोटी बहनों द्वारा की गई शरारतों को भूल पाई... आरती ने पलट कर अपनी बड़ीछोटी बहनों की ओर देखा. किसी बात पर दोनों खिलखिला उठी थीं. बेमौसम बरसात की तरह यों उन का ठहाका लगाना आरती को भीतर तक छेद गया. ‘सोच क्या रही है, तू भी सुन ले हमारी योजना और इस में शामिल हो जा,’ बड़ी फुसफुसाई. ‘कैसी योजना?’
‘है कुछ,’ छोटी फुसफुसाई. आरती की निगाहें बरबस ओसारे पर बिछी तख्त पर जा टिकीं. दुग्धधवल चादर बिछी हुई है. उसे भ्रम हुआ जैसे अम्मा उस पर बैठी उसे बुला रही हैं, ‘आ बिटिया, बैठ मेरे पास.’ ‘क्या है अम्मा?’ ‘तू इतनी गुमसुम क्यों रहती है री, देख तो तेरी बड़ीछोटी बहनें कैसे सारा दिन चहकती रहती हैं.’ आरती हौले से मुसकरा दी. फिर तो अम्मा ऊंचनीच सम?ातीं और वह ‘हां...हूं’ में जवाब देती जाती. बड़ी बहन बाबूजी की लाड़ली थी, तो छोटी अम्मा की. आरती का व्यक्तित्व उन दोनों बहनों की शोखी तले दब सा गया था. वह चाह कर भी बड़ीछोटी की तरह न तो इठला पाती थी, न अपनी उचितअनुचित फरमाइशों से घर वालों को परेशान कर सकती थी. वह अपने मनोभावों को चित्रों द्वारा प्रकट करने लगी. हाथों में तूलिका पकड़ वह अपने चित्रों के संसार में खो जाती जहां न अम्मा का लाड़, न बाबूजी का संरक्षण, न बहनों का बेतुका प्रदर्शन और न ही भाई की जल्दबाजी.