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आखिर किस का सहारा शेष बचा था ममता के लिए. हम दशहरे की छुट्टियां मसूरी में बिता कर लौटे. विमल ने कार से सामान निकाल कर बैडरूम में रखा और फिर लैटरबौक्स से अपनी डाक निकाल कर सोफे में धंस गए.

बहुत लगाव है उन्हें अपनी डाक से. प्रत्येक डाक का जैसे उन्हें सदियों से इंतजार रहता हो.

बच्चे आते ही टीवी चालू कर बैठ गए.

‘‘आते ही टीवी,’’ मैं ने ?ाल्ला कर कहा, ‘‘तुम लोग हफ्ताभर पूरी तरह मस्ती करते रहे. थोड़ा मेरे साथ भी हाथ बंटा दो तो घर जल्दी संभल जाए.’’

‘‘मम्मी, मैं पूरी तरह थका हूं. बैठेबैठे बोर हो गया. पापा ने चीतल के बाद गाड़ी रोकी नहीं, आप तो आते ही बस...’’ मेरा बड़ा बेटा मुंह बिचका कर बोला. छोटे से तो कोई उम्मीद वैसे भी नहीं थी.

‘‘अच्छा ठीक है,’’ मैं ने बरामदे का दरवाजा खोलते हुए कहा, ‘‘गमलों में पानी ही डाल दो, पौधे कैसे सूख गए हैं.’’

परंतु मु?ो मालूम था, मेरी बात सब अनसुनी ही कर देते हैं. जोर से बोलूंगी तो दोनों भागते हुए यहां चले आएंगे. फर्श पर पड़े सूखे पत्तों और धूल की मोटीमोटी परतों ने हिला कर रख दिया. छुट्टियों से पहले और बाद का सारा काम सारी मौजमस्ती को ?ाठला कर रख देता है. न जाने कितना समय लगेगा फिर से घर को ढंग से चलाने में.

‘‘विभा,’’ विमल ने जोर से आवाज दे कर पूछा, ‘‘कहीं से चाय मिल सकती है क्या? गाड़ी चलातेचलाते थक गया हूं. चाय मिल जाती तो थोड़ा आराम कर लेता.’’

‘‘अभी भला दूध कहां मिलेगा?

5 बजे से पहले तो दुकानें खुलती ही नहीं हैं. फिर भी सामने वाली से पूछती हूं,’’ मेरा इशारा पड़ोसिन की तरफ था.

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