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लेखक-कुशलेंद्र श्रीवास्तव

‘मैं तो वैसे ही तुम से कहूंगा कि इन को रुपए दे दो, पर तुम देना नहीं.’ उन के चेहरे पर हमेशा रहने वाली कुटिल मुसकान फैल गई थी.तब से ले कर आज तक मुनीमजी ही सारे रिश्तेदारों को मना करते रहे हैं और विलेन बनते रहे हैं.

मुनीमजी ने बैग में से पैसे निकाल कर अपनी अलमारी में रख दिए थे. ऐसा करते समय उन की पत्नी सुमन ने उन्हें देख भी लिया था, ‘‘अरे, आप सेठजी से पैसे मांग लाए. अच्छा किया. देखो, हमें पैसों की कितनी जरूरत है. अब आप कल ही बैंक में जमा कर अपना कर्जा चुकता कर देना.‘‘और सुनो, चिंटू की फीस भी देनी है.

10 हजार रुपए तो उस में लग ही जाएंगे.’’पत्नी के चेहरे पर राहत ?ालक रही थी. हो भी क्यों न, वह तो पिछले कई दिनों से रोज उस से कह रही थी कि वह सेठजी से लाखपचास हजार रुपए ले लें, बैंक वाले भी जान खाए जा रहे हैं और घर के कई जरूरी काम भी होने हैं. उसे भी लगता था कि सुमन कह तो सही रही है. सेठजी से कुछ एडवांस ले लूं और अपना पिछला हिसाब भी कर लूं. उस से भी कुछ पैसे आ जाएंगे. सेठजी ने तो अभी उस का हिसाब किया ही नहीं है. जब भी उन से हिसाब की कहो,  तो ‘हां कर देंगे, ऐसी भी क्या जल्दी है,’ कह कर बात काट देते.

वैसे तो मुनीमजी हर महीने सेठजी से पैसा लेते रहते पर सेठजी हमेशा उन के निर्धारित वेतन से कम पैसे ही उन्हें देते हुए कहते, ‘बाकी का जमा रहा. अरे, जमा रहने दो, वक्तबेवक्त काम आएगा.’सेठजी जानबू?ा कर ऐसा कह कर उस का पैसा जमा कर लेते. मुनीमजी ने हिसाब लगा कर देखा था. उसे तो सेठजी से अपने ही लाखों रुपए लेना बैठ रहा है. उस ने अपनी पत्नी के कहने पर सेठजी से पैसे मांगे भी थे.

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