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‘हां भई, तुम्हारा ही है,’ कुमार साहब हंसते हुए कहते, ‘पर मुझे कंधा तो वही देगा न, बाप हूं मैं उस का. एक ने तो पहले ही किनारा कर लिया, अब इस का ही आसरा है.’

सोचतेसोचते विभा की नजर अचानक कुमार साहब की तरफ गई जो अरथी को रस्सी बांध रहे थे. वे सोचने लगीं, ‘कहां तो ये बेटे के कंधे का सहारा ले कर जाने वाले थे और कहां आज बेटे को कंधा देना पड़ रहा है.’

विभा की नजर आकाश की तरफ उठ गई. ‘कहां हो बेटा, तुम तो विदेश जाने वाले थे, यह कहां चले गए. विदेश रहते तो कभीकभार बात भी कर लेती. अब मैं कहां देखूंगी तुम्हारा चेहरा.’ जिस शरीर को बचपन में रूई के गद्दे पर सुलाया करती थी कि कहीं उस के नाजुक शरीर पर उंगलियों के निशान न पड़ जाएं, उसे डाक्टर ने आज जाने कहांकहां नहीं चीराफाड़ा होगा. क्यों करते हैं लोग पोस्टमार्टम. क्या आत्मीय जनों की आत्मा का पोस्टमार्टम कम होता है, जो सरकार डेडबौडी का पोस्टमार्टम करवाने लगती है. अरे, एक बार रिश्तेदारों से पूछ तो लो कि उन्हें पोस्टमार्टम करवाना भी है या नहीं. कितनी चीरफाड़ करोगे हमारी जिंदगी की. विभा की आंखें आंसुओं से भर गईं.

अचानक हंगामा सा मच गया, ‘‘बौडी आ गई, बौडी...’’

आज सुबह ही तो तपन जीताजागता गया था और अब अचानक ही एक बौडी बन गया. दहाड़ें मार कर रो पड़ीं विभा, जैसे घर की दीवारों और छतों से पूछ रही हों कि कहां है मेरा तपन? वह बौडी कैसे बन सकता है? मैं जो उस में जीती हूं. धीरेधीरे भीड़ छंटने लगी थी. अरथी के साथ ही अधिकतर लोग चले गए थे. बड़ा बेटाबहू रात को आने का वादा कर के खिसक गए थे कि कहीं क्रियाकर्म में पैसा न खर्च करना पड़े. आज वर्षों बाद वे कुमार साहब के पास बैठीं बीती बातें कुरेद रही थीं. जब बच्चे बड़े होने लगे थे तब से उन की जिंदगी उन के ही इर्दगिर्द मंडराने लगी थी. आज तपन की एकएक चीज, उस के स्कूल के कपड़े, उस के फोटो, उस के जीते हुए कप, जूतेमोजे को सहेजसहेज कर रखते हुए उन्होंने रात बिता दी थी. सुबह थोड़ी सी उन की आंख लगी, तो लगा जैसे तपन कह रहा हो, ‘मां, तुम्हें मालूम है न, कितने लोगों के पैसे देने हैं.’ वे उठ कर बैठ गईं और सोचने लगीं, ‘दुकान बंद रहेगी तो रोज का खर्च कैसे चलेगा.’

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