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सरला बड़ी अनमनी सी हो उठी.

‘‘तुम लोग पढ़ेलिखे हो और होशियार, पर मैं इतना जरूर कह सकती हूं कि रानो की जिंदगी आज नहीं, तुम और नंदा दोनों मिल कर बहुत पहले ही तोड़ चुके हो. जिस पौधे को कुशल माली की देखरेख में यत्नपूर्वक सुरक्षित रख कर पाला जाना चाहिए था उसे तो तुम झंझावात में अकेला छोड़ चुके हो. मां से मिलने पर कुछ नया घटित नहीं होता, केवल उस के अंदर दबाढंका विद्रोह ही उभरता है. बच्चा चाहे कुछ और न समझे, पर मां से गहरे लगाव की बात उसे समझनी नहीं पड़ती. इस बेचारी की तो मां है, यह कैसे भूल सकती है? तेरी मां तो तुझे 10-12 साल का छोड़ कर इस लोक से चली गई थी, क्या तुझे कभी उस की याद नहीं आई?’’

प्रदीप क्षणभर को शर्मिंदा सा हो उठा, ‘‘नहीं, बूआ, यह ठीक नहीं है. रानो नंदा से मिलेगी तो उस की कमी और भी ज्यादा महसूस करेगी. उसे भूल नहीं सकेगी. जो मिल नहीं सकता, उसे भूल जाना ही अच्छा है.’’

सरला चुप हो गई. बहस करना बेकार था. मानअपमान का प्रश्न इस घर को तोड़ चुका था, पर वह अब भी खत्म नहीं था. सबकुछ देखतेबूझते भी वह मन ही मन यह उम्मीद करती रहती है कि किसी तरह इस टूटे घर में फिर से बहारें आ जाएं.

बूआ की बात से प्रदीप के दिमाग में उबलता हुआ लावा कुछ ठंडा होने लगा था, परंतु फिर भी वह नंदा के व्यवहार से जरा भी प्रसन्न नहीं था. उस ने नंदा का फोन मिलाया :

‘‘नंदा.’’

‘‘कौन? आप?’’

‘‘तुम रानो के स्कूल गई थीं?’’

‘‘हां,’’ नंदा का सूक्ष्म उत्तर था.

‘‘तुम जानती हो, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. रानो स्कूल से लौटी तो बेहद उत्तेजित थी. वह रोतेरोते सो गई. कम से कम अब तो तुम्हें हम लोगों को शांति में रहने देना चाहिए,’’ न चाहने पर भी प्रदीप के स्वर में सख्ती आ गई थी.

उत्तर में उधर से दबीदबी सिसकियां सुनाई पड़ रही थीं.

‘‘हैलो, हैलो, नंदा.’’

नंदा रोती रही. प्रदीप का भी दिल सहसा बहुत भर आया. उस का दिल हुआ कि वह भी रोने लगे. उस ने कठिनाई से अपने को संयत किया.

‘‘नंदा, क्या कुछ देर को मौडर्न कौफीहाउस में आ सकती हो?’’

‘‘वहां क्या कहोगे? कहीं तमाशा न बन जाए?’’

‘‘जरा देर के लिए आ जाओ, जो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं. वह फोन पर न हो सकेगा.’’

‘‘अच्छा, आती हूं.’’

कौफीहाउस के वातानुकूलित वातावरण में भी प्रदीप के माथे पर पसीना उभर रहा था. उसे लगा कि उस का सख्ती से सहेजा गया जीवन फिर उखड़ने लगा है और भावनाओं की आंधी में सूखे पत्ते सा उड़ता चला जा रहा है. दिमाग विचित्र दांवपेंच में उलझने लगा. वह नंदा के साथ बिताए गए जीवन में घूमने लगा. उसे लगा सभी कुछ उलटपुलट गया है.

उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. शीघ्र ही नंदा उस के सामने बैठी थी. पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत और आकर्षक, हमेशा की तरह आसपास के लोगों की दृष्टि उस के इर्दगिर्द चक्कर काटने लगी. और हमेशा की तरह उस के हृदय में ईर्ष्या की नन्ही चिनगारी जलने लगी. उस ने तुरंत अपने को संयत किया. नंदा का सौंदर्य व आकर्षण और उस की स्वयं की ईर्ष्या प्रवृत्ति एक घर को नष्ट कर के काफी आहुति ले चुकी थी. उसे अब स्वयं को शांत रखना था.

यत्नपूर्वक छिपाने पर भी नंदा के चेहरे पर रुदन के चिह्न मौजूद थे. वह अनदेखे की चेष्टा करने पर भी बारबार नंदा को देखता रहा. नंदा की बड़ीबड़ी आंखें उस पर स्थिर हो गई थीं और वह बेचैनी सी महसूस करने लगा था.

अस्थिरता की दशा में उस ने काफी चीजों का और्डर दे दिया था. वह उस से बात शुरू करने के लिए कोई सूत्र ढूंढ़ने लगा.

‘‘रानो ठीक रहती है?’’  नंदा ने ही झिझकते हुए पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘ज्यादा याद तो नहीं करती?’’ नंदा का स्वर भीगने लगा था.

‘‘तुम से मिलने से पहले तो नहीं करती.’’

नंदा को देख कर उसे लगा कि अब वह रो देगी.

‘‘मुझे पता नहीं था कि मैं रानो को इतना याद करूंगी. हर समय उसी के बारे में सोचती रहती हूं. उसे देख कर मन को कुछ शांति मिली, पर क्षणभर को ही.’’

‘‘यह सब तो पहले सोचना चाहिए था,’’ प्रदीप का स्वर बेहद ठंडा था.

‘‘उस समय तो हर चीज, हर व्यक्ति और हर भाव के प्रति मन में कटुता व्याप्त हो गई थी. रानो मुझ से इस तरह छिन जाएगी, यह स्वप्न में भी नहीं सोचा था. कभीकभी मन बेहद भटक जाता है. वह नन्ही सी जान कैसे अपनी देखभाल करती होगी?’’ नंदा की आंखों से आंसू टपकने लगे थे.

नंदा से मिलना पूर्णतया सामान्य नहीं हो सकेगा, इस की तो प्रदीप को संभावना थी. परंतु फिर भी एक सार्वजनिक स्थान पर इस तरह से भाव प्रदर्शन के लिए वह तैयार नहीं था. वह काफी परेशान सा हो उठा.

‘‘आजकल क्या कर रही हो,’’ वह रानो की बात छोड़ कर व्यक्तिगत धरातल पर उतर आया.

‘‘मुंबई की एक फर्म में प्रौडक्ट मैनेजर हूं.’’

‘‘तनख्वाह तो खूब मिलती होगी?’’

‘‘बड़ी फर्म है, अच्छा देते हैं. फिर भी रुचि अच्छी तनख्वाह में नहीं, काम में है. मुझ अकेली को कितना चाहिए. काम अच्छा है. नएनए चेहरे, काफी लोगों से मुलाकात, मन की भटकन से बची रहती हूं.’’

‘‘दोबारा शादी करने की सोची?’’

‘‘एक बार का अनुभव क्या काफी नहीं?’’ स्वर में व्यंग्य छिपा था.

‘‘फिर भी, कभी तो सोचा होगा. तुम अभी जवान हो, खूबसूरत भी, कुछ समय बाद यह स्थिति नहीं रहेगी.’’

‘‘जवान दिखने पर भी इस तरह के अनुभव स्त्री को मन से बूढ़ी बना देते हैं. फिर जो कभी न सोचा था वह हो गया, अब सोच कर ही क्या कर पाऊंगी?’’

‘‘काम भी ऐसा है. लोग तुम्हारी ओर आकर्षित तो होते होंगे,’’ प्रदीप अपनी बात पर अड़ा रहा. न चाहने पर भी ईर्ष्या की बेमालूम चिनगारी हवा पाने लगी.

नंदा उदास सी हंसी हंस दी, ‘‘मेरातुम्हारा चोरसिपाही वाला रिश्ता तो खत्म हो चुका है, फिर छिपा कर भी क्या करना है. मैं स्वयं किसी की तरफ आकर्षित नहीं हूं, पर मेरे चारों ओर घूमने वालों की कमी नहीं है. जैसा कि तुम ने कहा, मैं अभी खूबसूरत भी हूं, जवान भी.’’

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