‘‘आंटी चाय,’’ यह सुन कर दोनों की बातों को विराम लग गया. सामने भगवती की भतीजी चाय का जग और गिलास थामे खड़ी थी.
दोनों हड़बड़ा कर उठ गईं. वे चाय पीने से इनकार कर अपने घरों को चल पड़ीं.
दोनों पड़ोसिनों के जाते ही घरवाले सक्रिय हो गए.
‘‘जरा इधर आइए,’’ उषा, दीनानाथ की पत्नी, ने उन्हें अंदर के कमरे में चलने को कहा.
उन्होंने एक नजर पुराण श्रोताओं पर डाली, फिर उठ कर अंदर अपनी मां के कमरे में आ गए. अंदर बक्सा, अलमारी व दूसरी चीजें उलटीसीधी बिखरी हुई थीं.
‘‘यह क्या है?’’ वे गुस्से से तमतमाए.
‘‘बड़की जिज्जी संग ये दोनों मिल कर अलमारी खोल कर साड़ी, रुपया खोजती रहीं. फिर अपना मनपसंद सामान उठा कर ले गईं.’’
‘‘दीदी, अम्मा के पास एक जोड़ी कंगन, एक जोड़ी कान के टौप्स, हार और चांदी की करधनी थी, जिन में से करधनी तो कल हमें मिल गई. बाकी जेवर बड़की जिज्जी उठा ले गई हैं,’’ यह संध्या थी, उषा की देवरानी.
‘‘तुम ने करधनी कैसे ले ली? जब सास बीमार थीं तब तो झांकने भी न आईं,’’ उषा उलझ पड़ी.
‘‘उस से क्या होता है? अम्मा के सामान पर सब का हक है,’’ संध्या गुर्राई.
‘‘सेवा के समय हक नहीं था, मेवा के समय सब को अपना हक याद आ रहा है,’’ उषा चिल्ला पड़ी.
‘‘क्या पता? तुम क्याक्या पहले ही ले चुकी हो?’’ संध्या क्रोधित हो उठी.
दोनों को झगड़ता देख दीनानाथ बीचबचाव करते हुए बोले, ‘‘बाहरी कमरे में बिरादरी जमा है. अंदर तुम लोगों को झगड़ते शर्म नहीं आती. मैं इस कमरे में ताला जड़ देता हूं. तेरहवीं निबट जाने दो, फिर खोलेंगे.’’
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