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मिहिर आरती के यहां बरामदे में बैठा हुआ था. आरती ने उसे रघु के बारे में विस्तार से बताया. उस के भाई सुरेश ने एक अति सुंदर कन्या से प्रेमविवाह कर लिया था. वे अपने नवजात शिशु को ले कर मुंबई रहने चले गए थे जहां सुरेश की नौकरी लगी थी. पर किन्हीं वजहों से उन में अनबन रहने लगी और एक रोज उस की पत्नी उस से लड़झगड़ कर उसे छोड़ कर चली गई. साथ ही, बच्चे को भी छोड़ गई. सुरेश मजबूरन रघु को बैंगलुरु ले आया क्योंकि मुंबई में उसे देखने वाला कोई न था. ‘तू चिंता मत कर,’ पिता माधवराव ने उसे आश्वासन दिया, ‘बच्चे को यहां छोड़ जा, यह यहां पल जाएगा.’ उन्होंने बच्चे को आरती की गोद में डालते हुए कहा, ‘ले बिटिया, अब तू ही इसे पाल. हमेशा कुत्तेबिल्ली के बच्चों के साथ खेलती रहती है. यह जीताजागता खिलौना आज से तेरे जिम्मे.’

आरती ने शिशु को हृदय से लगा लिया. उस के दिल में ममता का स्रोत फूट निकला. उस नन्ही सी जान के प्रति उस के दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आया. वह सचमुच बच्चे में खो गई. वह बैंक से लौटती तो रघु की देखभाल में लग जाती. रघु भी उस से बहुत हिलमिल गया था और हमेशा उस के आगेपीछे घूमता रहता. वह उसे छोड़ कर एक पल भी न रहता था. कभीकभी रघु को कलेजे से लगा कर वह सोचती कि क्या यही मेरी नियति है? और लड़कियों की तरह उस ने भी सपने देखे थे. उस के हृदय में भी अरमान मचलते थे. वह भी अपना एक घरबार चाहती थी, एक सहचर चाहती थी जो उस को दुलार करे, उस के नाजनखरे उठाए, उस के सुखदुख में साथी हो. पर वह अपनी अधूरी आकांक्षाएं लिए मन ही मन घुटती रही. उसे लगता कि प्रकृति ने उस के साथ अन्याय किया है. और उस के अपनों ने भी उस की अनदेखी की है. सुरेश ने दोबारा शादी कर ली और उस ने रघु को अपने साथ ले जाना चाहा. ‘बेशक ले जाओ,’ माधवराव बोले, ‘तुम्हारी ही थाती है आखिर. इतने दिन हम ने उस की देखभाल कर दी. अब अपनी अमानत को तुम संभालो. मैं और तुम्हारी मां बूढ़े हो चले. अशक्त हो गए हैं. कब हमारी आंखें बंद हो जाएं, इस का कोई ठिकाना नहीं.’

रघु से बिछड़ने की कल्पना से ही आरती का दिल बैठने लगा. ‘यदि मुझे मालूम होता कि इस बालक से एक दिन बिछड़ना होगा तो मैं इस के मोहजाल में न फंसती,’ उस ने आह भर कर सोचा. और जब 7 साल के रघु ने सुना कि उसे मुंबई जाना होगा तो उस ने रोरो कर सारा घर सिर पर उठा लिया, ‘मैं हरगिज मुंबई नहीं जाऊंगा. वहां मेरा मन नहीं लगेगा. मैं बूआ को छोड़ कर नहीं रह सकता.’ पर उस की कौन सुनने वाला था. सुरेश उसे जबरन ले गया. आरती ने बताया कि जबतब रघु फोन पर बहुत रोता और झींकता था. उसे वहां बिलकुल भी अच्छा न लगता था. एक दिन अचानक सुरेश का फोन आया कि रघु गायब है. सुबह स्कूल गया तो घर नहीं लौटा. वे सब परेशान हैं और उसे तलाश कर रहे हैं. घर के लोग चिंतातुर टैलीफोन के इर्दगिर्द जमे रहे. सुबह द्वार की घंटी बजी तो देखा कि रघु खड़ा है, अस्तव्यस्त, बदहवास.

आरती ने दौड़ कर उसे लिपटा लिया.

‘अरे रघु बेटा, तू अचानक ऐसे कैसे चला आया?’

‘बूआ,’ रघु सिसकने लगा, ‘मैं घर से भाग आया हूं. अब कभी लौट कर नहीं जाऊंगा. मुझे वहां बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था. मैं वहां रोज रोता था.’

‘सो क्यों मेरे बच्चे,’ आरती ने उस का सिर सहलाते हुए पूछा.

‘मेरा वहां कोई दोस्त नहीं है. स्कूल से वापस आता हूं तो मां पढ़ने बिठा देती हैं. जरा सा खेलने भी नहीं देतीं. टीवी भी नहीं देखने देतीं. पापा के सामने मुझे प्यार करने का दिखावा करती हैं पर उन की पीठपीछे मुझे फटकारती रहती हैं.’

‘अच्छा, अभी थोड़ा सुस्ता ले. बाद में बातें होंगी.’

‘बूआ, मुझे बहुत भूख लगी है. मैं ने कल से कुछ नहीं खाया.’ उस ने उस का मनपसंद नाश्ता बना कर अपनी गोद में बिठा कर उसे खिलाते हुए कहा, ‘यह तो बता कि तू इस तरह बिना किसी को बताए क्यों भाग आया? तुझे पता है, घर में सब तेरी कितनी फिक्र कर रहे हैं?’ रघु ने अपराधी की तरह सिर झुका लिया. जब सुरेश को सूचना दी गई तो वह बहुत आगबबूला हुआ, ‘इस पाजी लड़के को यह क्या पागलपन सूझा? यहां ऐसा कौन सा कांटों पर लेटा हुआ था? नर्मदा दिनरात उस की सेवाटहल करती थी. सच तो यह है कि आप लोगों के प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है. खैर, मैं आ रहा हूं उसे लेने.’ रघु ने सुना तो रोना शुरू कर दिया, ‘मैं हरगिज वापस मुंबई नहीं जाऊंगा. अगर आप लोगों ने मुझे जबरदस्ती भेजा तो फिर घर से भाग जाऊंगा और इस बार वापस यहां भी न आऊंगा.’

‘छि: ऐसा नहीं कहते. हम तेरे पिता से बात करेंगे. कुछ हल निकालेंगे.’

मिहिर ने आरती की ये बातें सुनीं तो बोला, ‘‘इतना तो मेरी समझ में आ गया कि तुम ने रघु को बचपन से पाला है और तुम्हारा उस से गहरा लगाव है पर देखा जाए तो वह तुम्हारी जिम्मेदारी तो नहीं है. तुम ने उस की जिंदगी का ठेका नहीं लिया है. इतने दिन तुम ने उसे संभाल दिया, सो ठीक है. अब उस के मातापिता को उस की फिक्र करने दो. तुम अपनी सोचो.’’ आरती के माथे पर पड़े बल को देख कर उस ने झुंझला कर कहा, ‘‘आरती, मैं तुम्हें समझ नहीं पा रहा हूं. हमेशा दूसरों के लिए जीती आई हो. कभी अपने लिए भी सोचो. यह जीना भी कोई जीना है? बस, मैं ने कह दिया, सो कह दिया, कल हम कचहरी जाएंगे. तुम तैयार रहना.’’

‘‘ठीक है,’’ आरती ने कहा. उस ने एक विश्वास छोड़ा. वह मिहिर को कैसे समझाए कि अपना न होते हुए भी वह भावनात्मक रूप से रघु से जुड़ी हुई है. उस बालक ने मां की ममतामयी गोद न जानी. उस ने पिता का स्नेह व संरक्षण न पाया. आरती ही उस के लिए सबकुछ थी. आरती का उदास चेहरा देख कर मिहिर द्रवित हुआ, ‘‘आरती, अगर तुम रघु से बिछड़ना नहीं चाहतीं तो एक उपाय है. हम कानूनन रघु को गोद ले सकते हैं.’’

‘‘क्या यह संभव है?’’

‘‘क्यों नहीं. अमेरिका से कई संतानहीन दंपती भारत के अनाथालयों से अनाथ बच्चों को गोद लेते हैं. हां, इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है. बहुत कागजी कार्यवाही करनी पड़ती है, बहुत दौड़धूप करनी पड़ती है. अगर तुम चाहो और सुरेश इस के लिए राजी हो तो इस के लिए कोशिश की जा सकती है.’’

‘‘तुम इतना सब करोगे मेरे लिए?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के लिए कुछ भी कर सकता है.’’

आरती ने उसे स्नेहसिक्त नेत्रों से देखा. मिहिर उसे एकटक देख रहा था. उस की आंखों में कुछ ऐसा भाव था कि वह शरमा गई.

‘‘मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

आरती ने चाय बना कर रघु को आवाज दी, ‘‘बेटा, जरा यह चाय बाहर बरामदे में बैठे अंकल को दे आओ. मैं कुछ गरम पकौड़े बना कर लाती हूं.’’

‘‘अंकल चाय,’’ रघु ने कहा.

‘‘थैंक यू. आओ बैठो. तुम रघु हो न?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘तुम्हारी बूआ ने तुम्हारे बारे में बहुतकुछ बताया है. सुना है कि तुम पढ़ने में बहुत तेज हो. हमेशा अपनी क्लास में अव्वल आते हो.’’

‘‘जी.’’

‘‘अच्छा यह तो बताओ, तुम अमेरिका में पढ़ना चाहोगे?’’

‘‘मैं अमेरिका क्यों जाना चाहूंगा जबकि यहां एक से बढ़ कर एक अच्छे स्कूल हैं.’’

‘‘हां, यह तो है पर वहां तुम अपनी बूआ के साथ रह सकोगे.’’

‘‘बूआ का साथ कितने दिन नसीब होगा? एक न एक दिन तो मुझे उन से अलग होना ही पड़ेगा. स्कूली शिक्षा के बाद पता नहीं कौन से कालेज में, किस शहर में दाखिला मिलेगा.’’ मिहिर के जाने के बाद आरती ऊहापोह में पड़ी रही. उस की जिंदगी में भारी बदलाव आने वाला था. वह अपने कमरे में सोच में डूबी हुई बैठी थी कि रघु उस के पास आया, ‘‘बूआ, मैं तुम से एक बात कहना चाह रहा था.’’

 

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