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‘‘मेरे सोचने से क्या होगा? मनुष्य हालात के हाथों का खिलौना ही तो है. वर्तमान में जीने के लिए आप को भी अतीत से हाथ झटकना ही पड़ेगा.’’ ‘‘आने वाले दिनों में क्या होगा, उस की चिंता में आज का अनादर मत करो, गीता. कुछ भी उलटासीधा मत सोचो,’’ अपनी भुजाओं में कस कर मैं ने उस के गाल पर एक मुहर तो लगा दी, मगर उसे अवसाद से अलग नहीं कर पाया. धीरेधीरे वक्त आगे सरका. एक दिन मां की बीमारी का तार मिला तो हम दोनों घर गए. छोटा भाई दिनरात मां की सेवा कर रहा था. गीता ने जाते ही उसे इस जिम्मेदारी से मुक्त किया और कितने ही दिन मां की सेवा में लगी रही. मैं हर हफ्ते घर जाता रहा. इसी तरह लगभग 1 महीना व्यतीत हो गया. मां चुप थीं और पिताजी सवालिया नजरों से मुझे देखते, जैसे पूछ रहे हों, ‘क्या यह वही गीता है जिसे लोग पागल कहते थे?’

मैं कई बार सोचता, ‘जरूर बूआ और फूफाजी घर आते होंगे. क्या वे बेटी से मिलते होंगे? क्या अब भी मेरी पत्नी को अपनी पुत्री नहीं समझते होंगे?’

एक दिन पिताजी ने धीरे से कहा, ‘‘अपना तबादला यहीं करा ले बेटे, अकेले हमें अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘और गीता? उसे कहां फेंक दूं? आप का घर पागलखाना तो नहीं है न?’’‘‘बस करो गौतम. वह तो हमारी सब से बड़ी भूल थी.’’ पिताजी ने अपनी भूल मान ली थी. लेकिन अपना तबादला मेरे हाथ में नहीं था, फिर भी मैं ने आश्वासन दे दिया. एक दिन आंगन में फूफाजी को खड़े देख एक मिलीजुली भावना से मेरा पूरा शरीर कांप गया. वे मां का हालचाल पूछने आए थे. मैं ने देखा, गीता अपने कमरे में चली गई है. उस के पिता ने भी शायद उसे देखना नहीं चाहा था. मेरा मन रो रहा था. जी चाह रहा था कि किसी तरह गीता को पिता से मिलवा दूं. फूफाजी के चेहरे पर आतेजाते भाव मैं पढ़ना चाह रहा था, मगर वे सामान्य रूप से आम बातें कर रहे थे, राजनीति और महंगाई की बातें... ‘‘महंगी तो हर चीज हो गई है, फूफाजी. अगर मैं संतान के लिए पिता का प्यार खरीद सकता तो गीता के लिए उस के पिता का थोड़ा सा स्नेह खरीद लेता. मगर कैसे खरीदूं, उस की कीमत पता नहीं है न...’’ मैं ने तीर छोड़ा और वह संभावना के विपरीत ठीक निशाने पर जा बैठा. मैं ने हौले से कहा, ‘‘गीता की बीमारी का तार मिला था न आप को, क्या उस की मौत का इंतजार था आप को? क्या मांगा था उस गरीब ने आप से? क्या बिगाड़ा है उस ने आप का? सिर्फ यही कि आप के घर में जन्म ले लिया?

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