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दूसरे दिन डाक्टर से मिला. गीता की पीड़ा और उस के निदान के बारे में सबकुछ जाना. बचपन से यौवन तक पीड़ा और उपेक्षा सहने के कारण वह सामान्य रूप से पनप ही न पाई थी. पति ने छूना चाहा तो चीख उठी, क्योंकि पिता के स्पर्श की भूख ज्यादा बलवान थी. बालसुलभ इच्छाएं परिपक्वता पर हावी हो रही थीं. हृदय की भूख और आयु की मांग में वह सीमारेखा नहीं खींच पाई थी. फिर मैं उस के स्कूल गया. मुझे देख वह धीमे से मुसकरा पड़ी. आधे दिन की छुट्टी दिला कर मैं उसे समुद्र किनारे ले गया. तेज धूप में एक छायादार कोना खोज लिया. अचानक मेरे हाथ में अपना हाथ देख वह सहम गई थी. ‘‘एक बात बताना गीता, क्या तुम शादी के बाद पति के साथ निभा नहीं पाईं या उस का व्यवहार अच्छा नहीं था?’’

‘‘जी…’’ उस ने गरदन झुका ली.

‘‘उस का छूना तुम्हें बुरा क्यों लगता था? वह तो तुम्हारा पति था.’’

‘‘पता नहीं,’’ वह धीरे से बोली.

‘‘मुझे अपना मित्र समझो, अपने मन की बातें सचसच बता दो. मैं चाहता हूं कि तुम्हारा घरसंसार तुम्हें वापस मिल जाए.’’ ‘‘जी,’’ एकाएक उस ने मेरे हाथ से अपना हाथ खींच लिया और अविश्वास से मुझे निहारने लगी. ‘‘तुम पागल नहीं हो, यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूं. तुम मुझे अच्छी लगती हो, इसलिए चाहता हूं कि सदा सुखी रहो. जरा सा तुम बदलो, जरा सा तुम्हारा पति. इस तरह घर टूटने से बच जाएगा.’’ ‘‘वह इंसान, जिस ने मेरा अपमान कर मुझे पागल ही बना दिया, वह क्या मुझे मेरा घर देगा?’’

‘‘उस ने तुम्हारा अपमान क्यों किया?’’

‘‘आप ये सब जानने वाले कौन होते हैं. जो कभी मेरा था, जब वही मेरा नहीं हुआ तो आप की इतनी दया मैं क्यों स्वीकार करूं?’’ ‘‘कौन था तुम्हारा, गीता? क्या किसी और से प्यार करती थीं?’’ ‘‘नहीं,’’ वह चौंक गई, शायद उस की चोरी पकड़ी गई थी या जो वह कहना चाह रही थी, उस का अर्थ मैं नहीं समझा था. उस ने गरदन झुका ली. ‘‘मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, गीता, मैं ने कहा न, मुझे अपना मित्र समझो.’’ ‘‘मैं जैसी हूं वैसी ही अच्छी हूं. डाक्टर ने क्या कहा, बताइए?’’ ‘‘तुम पागल नहीं हो, डाक्टर ने यही कहा है. अब आगे क्या करना है, मैं तुम से यही पूछना चाहता हूं?’’

‘‘मेरा जो होना था, हो चुका. अब कुछ नहीं होगा. चलिए, वापस चलें.’’ उसी शाम मैं गीता के पति से मिला. उसे समझाना चाहा तो वह ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘जानते हो, एक बार उस ने क्या कहा? कहने लगी, मेरी सूरत में उसे अपने पिता की सूरत

नजर आती है. बेवकूफ लड़की, मुझे उस में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब तो मेरी दूसरी शादी भी पक्की हो गई है.’’ मेरा अंतिम प्रयास भी विफल रहा. उस रात मैं सो नहीं सका. सुबह मां ने बूआ की बताई लड़की देखने की बात की, तब लगा कि मन में कुछ चुभ सा गया है. गीता का शिला समान अस्तित्व मस्तिष्क में उभर आया . मैं सोचने लगा, अगर मेरी शादी गीता से हो जाए तो क्या बुरा है? उस में हर गुण तो हैं. जीवन का एक कोना सूना रह जाने से वह पनप नहीं पाई तो इस में उस का क्या दोष? पति की सूरत में पिता को तलाशती रही, यह इस सत्य का एक और प्रमाण था कि उस का बचपन उस के मन में कहीं सोया पड़ा है. सौतेली मां ने पिता छीन लिया और अब वह जवानी में उस छाया को पकड़ने का प्रयास कर रही है जिस का स्वरूप ही बदल चुका है. दूसरी शाम बूआ ने मुझे बुला भेजा. मैं वहां चला तो गया परंतु गीता के लिए कुछ ले जाना नहीं भूला. फूफाजी भी सामने थे और बूआ के दोनों बेटे भी. गीता सब के लिए चाय ले आई. उस दिन वह मुझे संसार की सब से सुंदर स्त्री लगी. शायद उस के प्रति जाग उठा स्नेह मेरी आंखों में उतर आया था. ‘‘कल लड़की देखने जाएगा न, मैं खबर भिजवा दूं?’’ बूआ ने पूछा.

कुछ देर मैं हिम्मत जुटाता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘मैं लड़की देख चुका हूं, बूआ.’’

‘‘अच्छा, कहां देखी? मुझे तो उन्होंने नहीं बताया.’’

‘‘तुम्हारी यह सौतेली बेटी मुझे बहुत पसंद है.’’ सामने बैठे फूफाजी अखबार झटक कर खड़े हुए, जैसे उन्हें मुझ पर या अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ हो. बोले, ‘‘ये पागल…’’ ‘‘यह पागल नहीं है, फूफाजी. मैं इसे मनोवैज्ञानिक को दिखा चुका हूं. पागल तो आप हैं कि अपनी दूधपीती बच्ची से बाप का साया ही छीन लिया. कभी नहीं सोचा कि यह आप के लिए तड़पती होगी, कितना रोई होगी अपने पिता के लिए. नए जीवन का आरंभ कर आप ने अपने अतीत से ऐसे हाथ झटक लिया कि वह चौराहे का मजाक बन गया. किसी ने इस मासूम लड़की को पागल कह कर छोड़ दिया और किसी ने…’’ ‘‘गौतम,’’ बूआ ने चीख कर विरोध करना चाहा, मगर उस पल जैसे मैं सारा आक्रोश निकाल कर ही दम लेना चाहता था. हक्कीबक्की सी खड़ी गीता सब को यों देख रही थी, मानो मन ही मन मेरी वजह से स्वयं को अपराधी महसूस कर रही थी. ‘‘पागल तो तुम भी हो बूआ, जिस ने संतान से उस का पिता छीन लिया.’’

बूआ के दोनों बेटे मुझे यों घूर रहे थे मानो उन्हें भी मेरे शब्दों पर विश्वास न हो रहा हो. फूफाजी गरदन झुका कर बैठ गए. हाथ में पकड़ा पैकेट गीता को थमा मैं ने फिर से हिम्मत बटोरी, ‘‘फूफाजी, मैं गीता को पसंद करता हूं. आप इजाजत दे दीजिए.’  मेरी मां ने गीता का विरोध किया, मगर मेरी जिद के सामने धीरेधीरे शांत हो गईं और एक दिन गीता मेरी हो गई. लेकिन मां ने मुझे घर छोड़ देने का आदेश दे दिया. उन्होंने कहा, ‘‘क्या कुंआरी लड़कियां मर गई थीं जो तुम ने एक तलाकशुदा, पागल लड़की से शादी करने की जिद पकड़ ली.’’ शादी के 3-4 दिन बाद ही मैं नए स्थान के लिए चल पड़ा. शादी से पहले ही पूना का तबादला करा लिया था. गृहस्थी के नाम पर बस मेरे पास एक अटैची थी. इतना शुक्र था कि क्वार्टर और थोड़ाबहुत फर्नीचर औफिस की तरफ से मिल गया था. कठपुतली सी गीता मेरे साथ चली आई थी. मां नाराज थीं, इसलिए चंद बरतन तक नहीं दिए थे कि जिन में मैं एक वक्त का खाना ही बना पाता. आतेआते अग्रिम तनख्वाह लेता आया था. गीता को घर छोड़ होटल से खाना और बाजार से जरूरत का सामान ले आया. जैसेतैसे पेट भर कर सोने की तैयारी की तो बिस्तर की समस्या आड़े आ गई. ‘‘आप यहां सो जाइए,’’ गीता ने कहा. सामने अपनी सूती साड़ी बिछा कर उस ने मेरा बिस्तर लगा दिया था. तकिया भी अपनी साड़ी को ही 5-6 मोड़ दे कर बना दिया था. मैं चुपचाप लेट गया. पर दूसरे ही क्षण खाली पलंग की ओर बढ़ती गीता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘जो है, उसी को आधाआधा बांटना है गीतू, सुखदुख भी, रोटी भी, तो फिर बिस्तर क्यों नहीं? देखो, यह क्या है, तुम्हारा खिलौना तो वहीं छूट गया था न, यह नया लाया हूं, रबड़ का गुड्डा.’’ जैसे किसी ने उस के रिसते घाव पर हाथ रख दिया हो. वह कभी मुझे और कभी खिलौने को निहारने लगी, जैसे सपना देख रही हो.

‘‘मेरे पास आओ, गीता. सच मानो, तुम्हारी इच्छा के बिना मैं कभी कुछ नहीं मांगूंगा. आओ, यहां आओ, मेरे पास.’’ उसे अपने समीप बिठाया. उस की डबडबाई बड़ीबड़ी आंखों में देखा, ‘‘क्या सोच रही हो, गीता? मैं तुम्हें अच्छा तो लगता हूं न?’’ उस ने नजरें झुका लीं. मैं ने बढ़ कर उस का माथा चूम लिया तो वह तड़प कर मेरे गले से लिपट कर बुरी तरह रोने लगी. ‘‘यह घर तुम्हारा है गीता, मैं भी तुम्हारा हूं. जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा. मैं तुम्हारा अपमान कभी नहीं होने दूंगा. बहुत सह लिया है तुम ने. अब कोई भी इंसान तुम्हें किसी तरह की पीड़ा नहीं पहुंचाएगा.’’ सुबकतेसुबकते वह मेरी बांहों में ही सो गई. सुबह वह उठी तो मेरी तरफ एक लजीली सी मुसकान लिए देखा. नए औफिस में मेरा पहला दिन अच्छा बीता. शाम को घर आया तो मेरी तरफ 5 हजार रुपए बढ़ा कर गीता धीरे से बोली, ‘‘यही मेरी जमापूंजी है. यह अब आप की ही है. चलिए, जरूरी सामान ले आएं. मैं ने सूची बना ली है.’’ मुझे उस के हाथ से रुपए लेने में संकोच हुआ. मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर वह आगे बढ़ी और रुपए मेरी कमीज की जेब में डाल दिए. फिर अपनी हथेली मेरे हाथ पर रख दी.

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