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‘लेकिन…’

‘लेकिन क्या?’ अजय ने झुंझला कर कहा.

अनिता अभी भी असमंजस में पड़ी थी. भला डेढ़ साल का बिट्टू उस के बिना सारा दिन अकेला कैसे रहेगा. यही सोचसोच कर वह परेशान हुई जा रही थी.

‘तुम देखना, 4-5 दिन में ही बिट्टू वहां के बच्चों के साथ ऐसा हिलमिल जाएगा कि फिर घर आने को उस का मन ही नहीं करेगा,’ अजय ने कहा.

लेकिन अनिता का मन ऊहापोह में ही डूबा रहा. वह अपने मन को व्यवस्थित नहीं कर पा रही थी. बिट्टू को अपने से सारे दिन के लिए अलग कर देना उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था.

जब पहले दिन अनिता बिट्टू को शिशुसदन छोड़ने गई थी तो वह इस तरह बिलखबिलख कर रोया था कि अनिता की आंखें भर आई थीं. अजय उस का हाथ पकड़ कर खींचते हुए वहां से ले गए थे.

दफ्तर में भी सारा दिन उस का मन नहीं लगा था. उस की इच्छा हो रही थी कि वह सब काम छोड़ कर अपने बच्चे के पास दौड़ी जाए और उसे गोद में उठा कर सीने से लगा ले.

कितना वक्त लगा था अनिता को अपनेआप को समझाने में. शुरूशुरू में वह यह देख कर संतुष्ट थी कि बिट्टू जल्दी ही और बच्चों के साथ हिलमिल गया था. लेकिन इधर कई दिनों से वह देख रही थी कि बिट्टू जैसेजैसे बड़ा होता जा रहा था, कुछ गंभीर दिखने लगा था.

वह जब भी दफ्तर से लौटती तो देखती कि बिट्टू सड़क की ओर निगाहें बिछाए उस का इंतजार कर रहा होता. अपने बेटे की आंखों में उदासी और सूनापन देख कर कभीकभी वह सहम सी जाती.

 

दरवाजे की घंटी बजी तो अनिता की तंद्रा टूटी. बिट्टू उस के चेहरे पर ही अपना चेहरा टिकाए सो गया था. उसे धीरे से उस ने बिस्तर पर लिटाया और जल्दी से गाउन पहन कर दरवाजा खोला तो अजय ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, आज बड़ी थकीथकी सी लग रही हो?’’

‘‘नहीं, ऐसे ही कुछ…तुम बैठो मैं चाय लाती हूं,’’ अनिता ने कहा और रसोई में आ गई. लेकिन रसोई में घुसते ही वह सिर पकड़ कर बैठ गई. वह भूल ही गई थी कि महरी छुट्टी पर है. सारे बरतन जूठे पड़े थे. उस ने जल्दी से कुछ बरतन धोए और चाय का पानी चढ़ा दिया.

‘‘बिट्टू क्या कर रहा है?’’ चाय का घूंट भरते हुए अजय ने पूछा.

‘‘सो रहा है.’’

‘‘इस समय सो रहा है?’’ सुन कर अजय को आश्चर्य हुआ.

‘‘हां, शायद दोपहर में सोया नहीं होगा,’’ अनिता ने कहा और फिर दो क्षण रुक कर बोली, ‘‘सुनो, आज बिट्टू बहुत परेशान था. उस ने मुझ से ठीक से बात भी नहीं की. बहुत गुमसुम और गंभीर दिखाई दे रहा था.’’

‘‘क्यों?’’ अजय ने हैरानी से पूछा.

‘‘कह रहा था कि मुझे वहां अच्छा नहीं लगता. मैं घर पर ही रहूंगा. दरअसल, वह चाहता है कि मैं सारा दिन उस के पास रहूं,’’ अनिता ने झिझकते हुए कहा.

अजय थोड़ी देर सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘तुम खुद ही उस से चिपकी रहना चाहती हो.’’

‘‘क्या कहा तुम ने?’’ अनिता के अंदर जैसे भक्क से आग जल उठी, ‘‘मैं उस की मां हूं, दुश्मन नहीं. फिर तुम्हारी तरह निर्दयी भी नहीं हूं, समझे.’’

‘‘शांत…शांत…गुस्सा मत करो. जरा ठंडे दिमाग से सोचो. इस के अलावा और कोई हल है इस समस्या का?’’

‘‘खैर, छोड़ो इस बात को. तुम जल्दी से तैयार हो जाओ. साहब के लड़के के जन्मदिन पर देने के लिए कोई तोहफा खरीदना है.’’

‘‘तुम चले जाओ, आज मैं नहीं जा पाऊंगी,’’ अनिता उठते हुए बोली.

‘‘तुम्हारी बस यही आदत मुझे अच्छी नहीं लगती. जराजरा सी बात पर मुंह फुला लेती हो. उठो, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘नहीं, अजय, मुंह फुलाने की बात नहीं है. काम बहुत है. महरी भी छुट्टी पर है. अभी कपड़े भी धोने हैं.’’

‘‘अच्छा फिर रहने दो. मैं ही चला जाता हूं.’’

अनिता चाय के बरतन समेट कर जाने लगी तो अजय ने फिर पुकारा, ‘‘अरे, सुनो.’’

‘‘अब क्या है?’’ उस ने मुड़ कर पूछा.

‘‘जरा देखना, कोई ढंग की कमीज है, पहनने के लिए.’’

‘‘तुम उस की चिंता मत करो,’’ अनिता ने कहा और अंदर चली गई. अजय ने चप्पलें पैरों में डालीं और फिर बिना हाथमुंह धोए ही बाहर निकल गया. अनिता ने बिट्टू को उठा कर नाश्ता कराया और फिर उसे खिलौनों के बीच में बैठा दिया.

घर भर के काम से निबट कर अनिता खड़ी हुई तो देखा, घड़ी 12 बजा रही थी. कमरे में आई तो देखा कि अजय और बिट्टू दोनों फर्श पर गहरी नींद में डूबे हुए हैं. वह भी बत्ती बुझा कर बिट्टू के बगल में लेट गई. शीघ्र ही गहरी नींद ने उसे आ घेरा.

सुबह शिशुसदन जाने के लिए तैयार होते वक्त बिट्टू फिर बिगड़ने लगा, ‘‘मैं वहां नहीं जाऊंगा. मैं घर में ही रहूंगा. बगल वाली चाची को देखो, सारा दिन घर में रहती हैं बबली को वह हमेशा अपने पास रखती हैं. और तुम मुझे हमेशा दूसरों के पास छोड़ देती हो. तुम गंदी मां हो, अच्छी नहीं हो. मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘हम आप के लिए बहुत सारी चीजें लाएंगे. जिद नहीं करते बिट्टू. फिर तुम अकेले तो वहां नहीं होते. वहां कितने सारे तुम्हारे दोस्त होते हैं. सब के साथ खेलते हो. कितना अच्छा लगता होगा,’’ अनिता ने समझाने के लहजे में कहा.

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