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‘सोनल यूनिवर्सिटी चली गई है. अब चल कर उस का कमरा साफ करूं,’ माधुरी झुंझलाई, ‘कितनी बार कहा लाड़ली से कि या तो काम करने वाली बाई से साफ करवा लिया कर या खुद साफ कर लिया कर. मगर उस पर तो इस का कुछ असर ही नहीं होता. काम करने वाली बाई के समय उसे बाधा होने लगती है और बाद में यूनिवर्सिटी जाने की जल्दी.’

सारे काम करने के बाद माधुरी को सोनल का कमरा साफ करना बहुत अखरता था. वह सोचती कि अब सोनल कोई बच्ची तो नहीं, 20 वर्षीया युवती है, एम.एससी. फाइनल की छात्रा. परसों उस की सगाई भी हो गई है. 2 महीने बाद जब उस की परीक्षा हो जाएगी तब विवाह भी हो जाएगा, पर अब भी हर प्रकार के उत्तरदायित्व से वह कतराती है. यदि माधुरी इस संबंध में उस के पिताजी से बात करती तो वे यही कहते, ‘क्या है जी, फुजूल की बातों में उस का वक्त मत बरबाद किया करो, वह विज्ञान की छात्रा है. घरगृहस्थी का काम तो जीवनभर करना है.’ कभीकभी वह सोचती कि शायद उस के पिताजी ठीक कहते हैं. हमारे समय में क्या होता था कि जहां जरा सी लड़की बड़ी हुई नहीं कि उस को घरगृहस्थी का काम सिखाना शुरू कर दिया जाता था और फिर जीवनपर्यंत वह घरगृहस्थी पीछा नहीं छोड़ती थी.

यही सब सोचते हुए माधुरी सोनल के कमरे में आ गई. चारों तरफ कमरे में अव्यवस्था फैली हुई थी. तकिया पलंग के बीचोबीच पड़ा था और उतारे हुए कपड़े भी पलंग पर बिखरे पड़े थे. पढ़ाई की मेज पर किताबें आड़ीतिरछी पड़ी थीं. माधुरी को फिर झुंझलाहट हुई कि 2 महीने बाद इस लड़की का विवाह हो जाएगा. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता कि यदि इस लड़की का यही हाल रहा तो यह गृहस्थी कैसे संभालेगी. सारा कमरा व्यवस्थित कर माधुरी पढ़ाई की मेज के पास आ गई, ‘यह किताबों के साथ मेज में बड़े रूमाल में क्या बंधा रखा है? पत्र मालूम पड़ते हैं. इतने पत्र, शायद अपनी सहेलियों के पत्र इकट्ठे कर रखे होंगे,’ माधुरी सोचने लगी. पत्र शायद संख्या में काफी थे. तभी तो रूमाल में बड़ी मुश्किल से बंध पाए थे. वह उन्हें उठा कर किनारे रखने लगी कि तभी कागज का एक टुकड़ा नीचे गिर गया. उस ने उस टुकड़े को उठा लिया. उस में लिखा था,  ‘प्रिय सोनल, तुम्हारे पत्र तुम्हें वापस कर रहा हूं. गिन लेना, पूरे 101 हैं. तुम्हारा सुमित.’

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कागज के उस टुकड़े को पढ़ कर माधुरी को चक्कर सा आने लगा. वह अपनी उत्सुकता को नहीं रोक पाई. उस ने रूमाल खोल दिया. गुलाबी लिफाफों में सारे प्रेमपत्र थे. वह जल्दीजल्दी उन को पढ़ने लगी. फिर सिर पकड़ कर वहीं पलंग पर बैठ गई. उस की आंखों के सामने एकदम अंधेरा सा छा गया. थोड़ी देर बाद वह सामान्य हुई तो सोचने लगी,  ‘यह क्या, यह लड़की इस मार्ग पर इतनी दूर निकल गई और उसे मां हो कर आभास तक नहीं मिला. वह तो सुमित को मात्र सोनल का एक सहपाठी समझती रही. शुरू से ही वह सहशिक्षा विद्यालय में पढ़ी है. लड़कों से उस की मित्रता भी हमेशा रही है. सुमित के साथ  कुछ ज्यादा ही घुलामिला देखा सोनल को, मगर वह इस बारे में तो सोच ही न सकी. अच्छा हुआ, इस समय घर में कोई नहीं है. उस के पास 2-3 घंटे का समय है, पूरी बात सोचसमझ कर कुछ निर्णय लेने का.’

उस ने उठ कर पहले तो पत्रों को यथावत रूमाल में बांधा, फिर कुरसी पर आ कर चुपचाप बैठ गई. और फिर सोचने लगी, ‘यह लड़की इस संबंध में एक बार भी कुछ न बोली. परसों उसे देखने उस के ससुराल के लोग आए थे तो वह एकदम सहज थी. उस से मैं ने और उस के पिताजी ने इस संबंध में उस की राय भी पूछी थी तब भी उस ने शालीनता से अपनी सहमति जताई थी. ‘मगर उस ने भी तो आज से 22 वर्ष पूर्व यही किया था. प्यार किसी और से करने पर भी उस ने सोनल के पिताजी से विवाह के लिए इनकार नहीं किया था. जब वह इंटर में थी तो पड़ोस में एक नए किराएदार आ कर रहने लगे थे. उन का सुदर्शन बेटा, भैया का दोस्त और एमए का छात्र था.

‘जाड़े की कुनकुनी धूप में वह अपनी पुस्तकें ले कर ऊपर छत पर आ जाती पढ़ने को, तभी देखती कि छत की दूसरी ओर वह भी अपनी पुस्तकें ले कर आ गया है. पढ़ते समय बीच में जब भी उस की नजर उस ओर उठती एकटक उस को अपनी ओर ही देखते पाती थी. संदीप नाम था उस का. उस की नजर में जो वह अपने लिए तड़प महसूस करती थी, वह उसे अंदर तक बेचैन कर देती थी. ‘कब वह भी धीरेधीरे उस की ओर आकृष्ट हो गई, वह समझ ही न सकी थी. हालांकि दोनों में से कोई एकदूसरे से एक शब्द भी नहीं बोलता था, पर उसे हर क्षण दोपहर की प्रतीक्षा रहती थी. ‘ऐसे में ही एक दिन उस को पता चला कि उस को देखने लड़के वाले आ रहे हैं. वह जैसे आसमान से नीचे गिरी मगर कुछ कह न सकी थी और वे लोग मंगनी की रस्म पूरी कर के चले गए थे. उस के बाद से वह ऊपर छत पर जाती, पर उसे वहां दूसरी छत पर कोई दिखाई नहीं देता था. बाद में संदीप की मां ने माधुरी की मां को बताया था कि आजकल चौबीसों घंटे संदीप पढ़ाई ही करता रहता है. कहता है कि परीक्षा सिर पर है और उसे  ‘टौप’ करना है. दाढ़ी वगैरह भी नहीं बनाता. सुन कर वह कमरे में जा कर खूब रोई थी.

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‘फिर विवाह के 2-3 दिन पूर्व उस ने उसे अचानक देखा था. भाई ने शायद उस से कोई संदेश कहलवाया था, भीतर मां के पास. देख कर वह तो पहचान ही न पाई थी. आंखें धंसी हुईं, बढ़ी  हुई दाढ़ी और उतरा चेहरा जैसे महीनों से बीमार हो. मां ने तो देखते ही कहा था, ‘अरे संदीप, यह क्या हाल बना रखा है तुम ने? अरे, पढ़ाई के साथसाथ स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया करो.’ ‘सभी बता रहे थे कि उस के विवाह में उस ने दिनरात की परवा किए बिना सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ रखी थी. फिर वह ससुराल चली आई थी. किसी चीज की कमी नहीं थी ससुराल में. पति का प्यार, रुपयापैसा सभीकुछ था मगर फिर भी कभीकभी उसे लगता कि उसे कुछ नहीं मिला. अकेले में वह अकसर रो पड़ती थी. संदीप से उस के बाद जब वह मायके जाती तो भी न मिल पाती थी. उस के पिता का स्थानांतरण हो गया था और वह होस्टल में रह कर पीएच.डी. कर रहा था. ‘बाद में सोनल और अंशुल ने आ कर उन स्मृतियों को थोड़ा धूमिल अवश्य कर दिया था. शादी के 10 वर्षों बाद अचानक, एक दिन ट्रेन में उस की मुलाकात हुई थी संदीप से. वह तो उसे देखते ही पहचान गई थी, पर संदीप को थोड़ा समय लगा था उसे पहचानने में. शायद विवाह और बच्चों ने उस में काफी परिवर्तन ला दिया था और तब पहली बार उन लोगों में बातें हुई थीं. भले ही वे औपचारिक थीं.

‘जब उस ने संदीप से विवाह और बच्चों के बारे में पूछा तो पता चला कि उस ने अभी तक विवाह नहीं किया था, पति ने चुहल की थी कि कोई पसंद नहीं आई क्या? मगर संदीप ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया था कि नहीं, एक पसंद तो आई थी मगर मेरे पसंद जाहिर करने से पहले ही उस ने दूसरे के साथ घर बसा लिया था. उस ने चौंक कर संदीप की आंखों में झांका था, जहां उसे अथाह वेदना लहराती नजर आई थी. वह फिर काफी दिनों तक बेचैन रही थी और अपने को अपराधिन अनुभव करती रही थी. ‘मगर उस का समय तो दूसरा था. प्रेम की बात को जबान पर लाने के लिए बड़ा साहस चाहिए था परंतु सोनल तो खुली हुई थी, वह तो उसे बता सकती थी कि हो सकता है उस ने सोचा हो कि हम लोग अंतर्जातीय विवाह नहीं करेंगे क्योंकि सुमित दूसरी जाति का था. मगर एक बार वह कह कर देखती. लगता है उस ने अपने मातापिता का दिल नहीं तोड़ना चाहा होगा.

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