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छोटी थी मैं लेकिन इतनी भी नासमझ न थी कि मां के दुख को समझ न पाती. काश, मैं पिताजी से मां के लिए थोड़ा प्यार मांग पाती क्योंकि मां के लिए शायद पिताजी का प्यार ही हम बच्चियों से ज्यादा महत्त्व रखता था. मां का अधिकतर भूखे रहना और लगातार रोते रहना ही शायद वे कारण थे जिन के चलते वे समय से पहले ही अधेड़ हो गई थीं. मेरी सभी सहेलियों की मांएं अभी भी युवा लगती थीं.

‘मां के बगैर मैं कैसे रहूंगी,’ यह सोच कर ही मैं विकल हो उठी. बेशक पिताजी के पास बहुत पैसा है पर पैसे से मां का प्यार तो नहीं खरीदा जा सकता. मुझे मां से सदैव शिकायत ही रही. मेरी 6-7 प्रिय सहेलियों की माताओं को मैं ने करीब से देखापरखा था. मुझे कभी किसी ने कुछ विस्तार से बताया तो नहीं, पर अपनी 13 वर्षीय बुद्धि से मैं इतना तो समझ ही जाती थी कि उन तमाम मांओं के सीने में कोई न कोई दर्द अवश्य छिपा हुआ है.

‘दर्द खत्म हो जाए तो शायद जीवन को कोई भी रस रोमांचित नहीं कर पाएगा,’ इसी बात को बारबार एक नए अंदाज में मैं ने मां को समझाने की कोशिश की. पर वे सिर्फ मेरे समझाने मात्र से अपने चेहरे पर बनावटी खुशी नहीं ओढ़ पाती थीं. जब भी मां मेरी तर्कपूर्ण बात की अवहेलना करतीं तो मुझे लगता कि उन के लिए सिर्फ पति ही सर्वोपरि हैं, मैं और नन्ही कुछ भी नहीं. मैं कई बार मां को झकझोर कर उन्हें उन के गुमसुम खयालों से खींच लाती और पूछती कि ‘मैं और नन्ही उन की उपेक्षा का कारण क्यों हैं?’ तब मां हम दोनों को अपने आगोश में कस लेतीं. उन के आंसुओं की धार में गजब की तेजी आ जाती. वे निरीहभाव से हमें ताकतीं और उम्मीद करतीं कि हम उन के आंसुओं मेें से उन का स्नेह छांट लें. मेरे और नन्ही के लिए मां के पास शब्दों का अभाव था. पर पिताजी से वे लगातार बोलती रहतीं. देर रात जब नशे में धुत पिताजी घर लौटते और शराब की दुर्गंध से कमरा भर जाता, तब मां उन्हें उलाहने देतीं, कोसतीं. दूसरी ओर पिताजी दूर बैठ कर मां को धमकाते रहते. पर, मां चुप न होतीं और पिताजी के साथसाथ उन की सैके्रटरी नम्रता को भी लताड़तीं. तब पिताजी अपने वश में न रह पाते और मां के गालों पर तमाचा जड़ देते, ‘‘खबरदार अंजना, तुम ने अब एक भी अपशब्द नम्रता के लिए कहा, मैं तुम्हारी जबान खींच लूंगा.’’

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