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सबकुछ व्यस्थित हो गया तो एक पारिवारिक महिला शुभचिंतका ने शिवानी की मम्मी सुषमा को सलाह दी, ‘‘सुषमा बहन, बेटे को नौकरी मिल गई है. आप को पैंशन मिल रही है. बेटी ग्रेजुएशन कर के घर में बैठी है. अब उस की शादी कर दो.’’

सुषमा को शुभचिंतका की बात नागवार गुजरी, गहरी उसांस ले कर कहा, ‘‘अभी कहां से कर दें. बेटे की अभीअभी नौकरी लगी है. कुछ जमापूंजी हो तो करें.’’शुभचिंतिका ने हैरानी से कहा, ‘‘क्या बात करती हो बहन. पति का पैसा कहां चला गया?’’

‘‘उस को बेटी की शादी में खर्च कर देंगे तो बुढ़ापे में मु?ो कौन पूछेगा. बेटा और बेटी दोनों की शादी करनी है परंतु बेटा कुछ कमा कर जोड़ ले तो सोचूंगी. तब तक बेटी भी कोई न कोई नौकरी कर लेगी. आज के जमाने में एक आदमी की कमाई से घर कहां चलता है.’’

‘‘बात तो ठीक है परंतु जवान बेटी समय पर घर से विदा हो जाए तो मां की सारी चिंताएं खत्म हो जाती हैं. वरना हर समय लांछन का दाग लगने का भय सताता रहता है.’’

‘‘बहन, सच्ची बात कहूं,’’ सुषमा ने नाराजगी के भाव से कहा, ‘‘दूसरों की मैं नहीं जानती परंतु मेरी बेटी बहुत सीधी है. मैं ने उसे ऐसे संस्कार दिए हैं कि मरती मर जाएगी, परंतु गलत काम नहीं करेगी. मजाल है कि राह चलते किसी लड़के की तरफ निगाह उठा कर देख ले.’’

शुभचिंतिका ने मन ही मन सोचा, लगता है सुषमा ने जमाना नहीं देखा है. कितना बदल गया है. लड़कालड़की किस तरह खुलेआम इश्क फरमाते घूम रहे हैं. लगता है समाज में नैतिकता और मर्यादा की सारी सीमाएं टूट चुकी हैं. शिवानी कब तक जमाने की बदबूदार हवा से अपनी नाक बंद कर के रखेगी. जवानी की आग जब देह को जलाने लगती है तो बड़ेबड़े संतों की दृढ़ प्रतिज्ञा तिल के समान जल जाती है.

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