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जीवनशाह चौराहे के दाईं ओर की लंबी सी गली के उस पार कच्ची दीवारों और खपरैल वाले घरों का सिलसिला शुरू हो जाता है. ज्यादातर आबादी मुसलमानों की है जो अपने पुश्तैनी धंधों को कंधे पर लाद कर, सीमित आय और बढ़ती महंगाई के बीच समीकरण बैठातेबैठाते जिंदगी से चूक जाते हैं. वक्त से पहले उन के खिचड़ी हुए बाल, पोपले मुंह और झुकी हुई कमर उन की अभावोंभरी जिंदगी की दर्दनाक सचाई को उजागर करते हैं.

टिमटिमाते असंख्य तारों से भरा स्याह आकाश, पश्चिम से आती सर्द पुरवा, उस समय सहम कर थम सी जाती जब मुकीम का आटो तेज आवाज करता हुआ गली में दाखिल होता. आसपड़ोस के लोग रात के खाने से फ्री हो कर अपनेअपने दुपट्टों और लुंगी के छोर से हाथ पोंछते हुए अगरबत्ती की सींक से खाने के फंसे रेशों को दांतों से निकालने का काम फुरसत में करने लगते. अचानक बरतन पटकने और मुकीम की लड़खड़ाती आवाज की चीखचिल्लाहट, नींद से जागे बच्चों के रोने की आवाज और आखिर में नईमा को बाल खींच कर कच्चे आंगन में पटकपटक कर मारते हुए मुकीम की बेखौफ हंसी के तले दब जाती नईमा की दर्दभरी चीखें. यह किस्सा कोई एक दिन का नहीं, रोज की ही कहानी बन गया था. मांसल जिस्म की मंझोले कद वाली नईमा की रंगत सेमल की रुई की तरह उजली थी. शादी के बाद हर साल बढ़ने वाली बच्चों की पौध ने उस के चेहरे पर कमजोरी की लकीरें खींच दी थीं. अंगूठाछाप नईमा, आटो चला कर चार पैसे कमा कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेने वाले मुकीम को सौंप दी गई थी. 15 वर्गफुट के दायरे में सिमटी नईमा की जिंदगी नागफनी का ऐसा फूल बन कर रह गई जिसे तोड़ कर गुलदान में सजाने की ख्वाहिश एकदम बचकानी सी लगती. पूरे 10 सालों तक, हर रात शराब के भभके के बीच कत्ल की रात बनती रही और हर दिन जिंदगी को नए सिरे से जीने की आस में धीरेधीरे शबनम की तरह पिघलती रही.

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