मैं इंगलैंड से एमबीए करने के लिए श्रीनगर से फ्लाइट पकड़ने को घर से बाहर निकल रहा था तो मुझे विदा करने वालों के साथ साथ फूफी दादी की आंखों में आंसुओं का समंदर उतर आया. अम्मी की मौत के बाद फूफी दादी ने ही मुझे पालपोस कर बड़ा किया था. 2 चाचा और 1 फूफी की जिम्मेदारी के साथ साथ दादा जान की पूरी गृहस्थी का बोझ भी फूफी दादी के नाजुक कंधों पर था. ममता का समंदर छलकाती उन की बड़ी बड़ी कंटीली आंखों में हमारे उज्ज्वल भविष्य की अनगिनत चिंताएं भी तैरती साफ दिखाई देती थीं. उन से जुदाई का खयाल ही मुझे भीतर तक द्रवित कर रहा था. कार का दरवाजा बंद होते ही फूफी दादी ने मेरा माथा चूम लिया और मुट्ठी में एक परचा थमा दिया, ‘‘तुम्हारे फूफा दादा का पता है. वहां जा कर उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश करना और अगर मिल जाएं तो बस, इतना कह देना, ‘‘जीतेजी एक बार अपनी अम्मी की कब्र पर फातेहा पढ़ने आ जाएं.’’
फूफी दादी की भीगी आवाज ने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया. पूरे 63 साल हो गए फूफी दादी और फूफा दादा के बीच पैसिफिक अटलांटिक और हिंद महासागर को फैले हुए, लेकिन आज भी दादी को अपने शौहर के कश्मीर लौट आने का यकीन की हद तक इंतजार है. इंगलैंड पहुंच कर ऐडमिशन की प्रक्रिया पूरी करते करते मैं फूफी दादी के हुक्म को पूरा करने का वक्त नहीं निकाल पाया, लेकिन उस दिन मैं बेहद खुश हो गया जब मेरे कश्मीरी क्लासफैलो ने इंगलैंड में बसे कश्मीरियों की पूरी लिस्ट इंटरनैट से निकाल कर मेरे सामने रख दी. मेरी आंखों के सामने घूम गया 80 वर्षीय फूफी दादी शफीका का चेहरा. मेरे दादा की इकलौती बहन, शफीका की शादी हिंदुस्तान की आजादी से ठीक एक महीने पहले हुई थी. उन के पति की सगी बहन मेरी सगी दादी थीं. शादी के बाद 2 महीने साथ रह कर उन के शौहर डाक्टरी पढ़ने के लिए लाहौर चले गए. शफीका अपने 2 देवरों और सास के साथ श्रीनगर में रहने लगीं.