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मां ने भी अपनी बेटी के घर रहने के लिए स्वयं को तैयार कर लिया था और सामान पैक करने लगी थीं. आखिर कब तक अकेले रहूंगी, परिस्थिति ही कुछ ऐसी बन गई कि अब बेटी के घर रहना ही होगा. पर निशा की मां मन में खुश भी थी कि अपने नाती के साथ बाकी बचा जीवन कट जाएगा. आखिर पति के न रहने पर जहां असुरक्षा का भाव मन में पैदा हो गया है, वहीं दूसरी तरफ समय न कटने की समस्या भी तो है. तकरीबन 3 माह बाद निशा की मां उषा उन के घर में थी. मिलने पर दोनों मांबेटी गले लग कर जी भर कर रो लीं और मन हलका कर लिया.

अब निशा की भी फिक्र कुछ कम हो गई थी. सुबह देर से सो कर उठती, तो मां नाश्ता तैयार कर लेती. बेटे ऋत्विक के स्कूल के होमवर्क की समस्या भी खत्म हो गई थी. नानी अपने नाती को होमवर्क भी करवा देती.

जिस तरह से न्यूज चैनलों पर कोरोना से हुई मौतें एवं अस्पताल का मंजर दिखाया जा रहा था. हर तरफ दहशत का माहौल था. बाला स्वयं मन में डर रहा था कि उस की मां भी मदुरै में अकेली रहती हैं. रोज अपनी मां के हालचाल फोन पर जान लेता, पर वह भी तो एकलौता बेटा है. आखिर मां की जिम्मेदारी उस पर ही तो है. पिता के न रहने पर मां ने ही तो अकेले रह कर नौकरी कर उसे पालापोसा. जब तक कालेज जाती थी और बात थी. रिटायरमेंट के बाद तो अब सारा दिन घर में अकेली ही रहती हैं. पहले कितना रोब और रुतबा हुआ करता था कालेज की प्राचार्या डा. के. भवानी का. लेकिन अब करीब 70 साल की उम्र, उसपर ये कोरोना. मां अकेले ही तो सब्जी, राशन की व्यवस्था करती है, सोचते हुए बाला एक दिन निशा से बोला, “सोचता हूं मेरी मां भी तो अकेली हैं, उन्हें भी यहां चेन्नई में ले आऊं.”

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